बतंगड़ बेतुक : जहालत की गोद में समझदारी

Last Updated 12 Apr 2020 12:20:55 AM IST

‘झल्लन आया, उसके चेहरे पर न हास था न परिहास था, वह कुछ ज्यादा ही उदास था। हमने कहा, ‘क्या बात है झल्लन, इतना उदास क्यों लग रहा है, लगता है जैसे कई दिन से जग रहा है?’


बतंगड़ बेतुक : जहालत की गोद में समझदारी

झल्लन बोला, ‘ददाजू, इधर जो हो रहा है बहुत बुरा हो रहा है, हमें भर नींद सोने नहीं दे रहा है। हम पक्के देशभक्त हैं इसलिए देश की चिंता कर रहे हैं, अब इस देश का क्या होगा इसी सोच में जी-मर रहे हैं।’ हमने कहा, ‘न तेरे सोचने से कुछ होगा झल्लन, न तेरे डरने से कुछ होगा, जिनके करने से कुछ होता है उन्हीं के करने से होगा।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, जब अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, स्पेन और ईरान जैसे समृद्ध, शिक्षित, शक्तिाली देश कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो हम क्या कर पाएंगे, कैसे इस निष्ठुर कोरोना पर विजय पाएंगे?’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, ऐसी लड़ाई शिक्षा, संपन्नता और शक्ति से नहीं, बल्कि समझदारी से जीती जाती है। जो देश विज्ञान सम्मत दिशा-निर्देशों के पालन में अनुशासित तरीके से जितनी ज्यादा समझदारी दिखाएगा वह देश इस महामारी से उतनी ही जल्दी पार पाएगा।’

झल्लन बोला, ‘ददाजू, अगर समझदारी ही सबसे बड़ा हथियार है तब तो हमारे आगे के दिन बहुत बुरे हैं, क्योंकि समझदारी के नाम पर तो यहां लोगों के दिमागों में सिर्फ जहालत के छुरे हैं। आप खुद देख लीजिए, तब्लीगियों की एक जाहिल जमात ने किस कदर कहर बरपा किया है, समूचे देश को गर्त में लुढ़का दिया है। हैरानी इस पर है कि ये अब भी समझदारी नहीं दिखा रहे हैं, अपने छिपे हुए ठिकानों से निकल कर अस्पताल नहीं जा रहे हैं, सरकार की कोशिशों में तरह-तरह के अडं़गे लगा रहे हैं।’ हमने कहा, ‘झल्लन, यह स्थिति बहुत डरावनी है, हमारे सभ्य समाज के लिए बहुत बड़ी चेतावनी है।’ झल्लन बोला, ‘आप किस सभ्य समाज की बात कर रहे हैं ददाजू, हमारे यहां तो भ्रष्ट, स्वार्थी, धर्माध जड़ताओं का समाज है जहां कोई भी जरा सा मौका पाता है, लॉकडाउन तोड़ जाता है और सरकार की कोशिशों  में पलीता लगा जाता है।’ हमने कहा, ‘झल्लन, यह मनुष्य समाज है। यह कभी भी एकरस नहीं चलता है, जड़ से जड़ व्यक्ति भी यहां है तो समझदार से समझदार व्यक्ति भी यहीं मिलता है। हमें कुछ जाहिलों की जड़ता से परेशान नहीं होना चाहिए, इनकी हरकतों पर आपा नहीं खोना चाहिए, समझदार लोगों को आगे बढ़कर जड़ता के इस बंजर में समझदारी का बीज बोना चाहिए।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, हमारा सत्तरसाला धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र धर्माधों की जड़ता को नहीं मिटा पाया, इनके दिमाग से जहालत के जाले नहीं हटा पाया, सारे समझदारों की समझदारी चुक गयी लेकिन इन्हें इंसान नहीं बना पाया। अब आगे कौन सी और किसकी समझदारी काम आएगी? आप देख लीजिए ददाजू, इस मुल्क में जहालत ही जीतेगी, समझदारी हार जाएगी।’ हमने कहा, ‘झल्लन, हर समाज अपनी आधुनिक समझदारी के बल पर ही आगे बढ़ता है, समझदारी के बल पर ही उन्नति की सीढ़ियां चढ़ता है, रही जहालत की बात तो हर सभ्य समाज अपने भीतर की जहालत से जरूर लड़ता है।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, आप सच्चाई स्वीकार करने से रुक रहे हैं, लगता है कि आपको भी जहालत से डर लगता है इसलिए आप भी जहालत के आगे झुक रहे हैं। अब देखिए, इस समय क्या हो रहा है, हर समझदार अपने-अपने पक्ष की जहालत के पक्ष में खड़ा हो रहा है। आप उसकी जहालत गिनाते हैं, वह आपकी जहालत गिना देता है। आप उस तरफ उंगली उठाकर उसे जाहिल बताते हैं तो वह आपकी तरफ उंगली उठाकर आपको उससे भी बड़ा जाहिल बता देता है। आप देख लीजिएगा ददाजू, हिंदुस्तान कोरोना से नहीं हारेगा, जहालत और उसके समर्थकों की वजह से हारेगा।’
झल्लन की बातों की सच्चाई हमें डरा रही थी, हमें लगा कि हमारी मनुष्यतावादी समझदारी ही हमें हरा रही थी। हमने कहा, ‘समझदारी उसमें नहीं होती जिसमें तू बता रहा है यानी यह नहीं होती कि एक समझदार अपनी तरफ की जहालत को छिपाए और दूसरों को खुलकर जाहिल बताए। समझदारी इसमें होती है कि हम अपनी ही ओर की जहालत को जानें, अपने ही कुनबे के जाहिलों को पहचानें और अपनी निंदा, आलोचना की बंदूक अपने ही जाहिलों पर तानें। जो समझदारी जाहिलों की रक्षा में उतर आती है वह समझदारी जहालत से ज्यादा खतरनाक हो जाती है।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, कोरोना से लड़ाई में यही तो हो रहा है, हर समझदार अपनी ही जहालत का बोझ ढो रहा है। हर समझदार को अपनी जहालत में समझदारी दिखाई दे रही है और दूसरे की समझदारी में जहालत दिखाई दे रही है। लगता है जंग कोरोना से नहीं, जहालत और जहालत के बीच हो रही है और समझदारी जैसे जाहिलों की बगल में सो रही है। कहीं-कहीं तो साफ दिखता है कि समझदारी जहालत के साथ खड़ी हो रही है और समझदारों की वजह से ही जहालत ज्यादा बड़ी हो रही है।’
इतनी समझदारी हमारे पास नहीं थी कि हम झल्लन की बात का प्रतिवाद कर सकते, सिवाय इसके कि हम वहां से उठते और चल निकलते।

विभांशु दिव्याल


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