एनआरसी : तब्दीलियों के मायने

Last Updated 03 Dec 2019 06:47:36 AM IST

अपने नागरिकों की गिनती जानने की भारत सरकार की भूख मिटती नहीं दिख रही। वर्ष 2021 की जनगणना के लिए रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त ने घर-घर जाकर आंकड़े जमा करने की 10-वर्षीय परियोजना पूरी कर ली है।


एनआरसी : तब्दीलियों के मायने

अगली गर्मी में जनगणना के साथ-साथ राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी के लिए व्यक्तिगत स्तर के आंकड़े भी अपलोड होने वाले हैं। जनवरी, 2019 तक कुल 123 करोड़ आधार कार्ड जारी किए जा चुके हैं। इन सबके साथ-साथ हाल में संसद में एक और गिनती का प्रस्ताव दिया गया- नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजेंस (एनआरसी) को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का। पूर्ववर्ती सरकारें देश में ‘निवासियों’ की गिनती करती रहीं न कि ‘नागरिकों’ की। पर इस नवीनतम पहल का उद्देश्य नागरिकों की गिनती करना है-विशेषकर गैर-नागरिकों में से नागरिकों की पहचान कर उनको छांटना, कुछ को निकालना, कुछ को शामिल करना और फिर ‘घुसपैठियों’ को निकाल बाहर करना है। 
देश भर में एनआरसी को लागू करने की उपादेयता और इसकी नैतिक वैधता प्रश्न के घेरे में है। विदेशियों के अधिनियम (फॉर्नर्स एक्ट), 1946 के तहत जिस व्यक्ति पर विदेशी होने का आरोप है, इस बारे में सबूत भी उसे ही पेश करना है।

चूंकि नागरिकता कानून विदेशियों की पहचान के लिए किसी स्वतंत्र प्रक्रिया का प्रावधान नहीं करता, और हमें नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट गैरकानूनी प्रवासी (ट्रिब्यूनल से निर्धारण योग्य) अधिनियम या आईएमडीटी अधिनियम को 2005 में ही निरस्त कर चुका है। सो, एनआरसी देश की पूरी जनसंख्या को प्रभावी रूप से विदेशी होने के संदेह के घेरे में ले आता है। ऐसा राज्य जिसमें विदेशियों की ‘पहचान’ की क्षमता नहीं है, या गैरकानूनी प्रवासियों की घुसपैठ से जो अपनी सीमा को सुरक्षित नहीं रख सकता, उसके पास छंटनी से विदेशियों की पहचान का क्या औचित्य है? यह न केवल चींटी को रौंदने के लिए हाथी का प्रयोग करना है, बल्कि हाथी पर ज़ुल्म करने जैसा भी है। आइए, ऐसी परियोजना से उत्पन्न होने वाले नैतिक खतरे पर विचार करने से पहले गौर करें कि देश भर में एनआरसी को लागू करने के लिए किस स्तर पर संसाधनों की जरूरत होगी। 87.9 करोड़ लोगों के ‘सत्यापन’ के लिए 1.33 करोड़ अधिकारियों की फौज लगानी होगी। 2011-12 (इसके बाद के आंकड़े उपलब्ध नहीं) में देश में कुल सरकारी अधिकारियों की संख्या 2.9 करोड़ थी। अगर जनगणना की तरह ही, इस योजना को भी सिर्फ केंद्र सरकार के कर्मचारी ही अंजाम दें तो जाहिर है कि इसके लिए अतिरिक्त लोगों की नियुक्ति करनी होगी और रोजगार सृजन के लिए यह पूरी तरह अभिनव प्रयोग साबित होगा। इस योजना को पूरा करने के लिए भारत की पूरी जनसंख्या और इसके 50 फीसद से ज्यादा अधिकारियों को कम से कम 10 साल तक ख़्ाुद अपनी और दूसरों की गिनती के लिए इस कार्य में लगे रहना होगा-और हर तरह से, देश के सकल राष्ट्रीय ख़्ाुशी में इसे इनका विशेष योगदान माना जाएगा। 
भारत में प्रशासनिक अमला कितना सक्षम है, यह जग जाहिर है, ऐसे में गरीब और अनपढ़ नागरिकों का,  जिनके पुरखे इस देश के अलावा किसी अन्य देश के बारे में जानते तक नहीं थे, स्वीकार्य दस्तावेज को नहीं पेश कर पाना भयानक दु:स्वप्न सा होगा। कुछ अप्रत्याशित परिणाम देने वाले असम एनआरसी के अनुभव से कुछ सीख मिली है, जिसमें ऐसे लोग ही सूची में जगह नहीं बना पाए जो इस योजना को लागू कराने में सबसे आगे थे। कमाल सादिक ने जिसे ‘रिश्तेदारों का नेटवर्क’ और ‘मुनाफे का नेटवर्क’ कहा है, उसके माध्यम से ‘कागजी नागरिकता’ हासिल करने की बातों को नजरअंदाज करने का जोखिम हम नहीं उठा सकते। जैसा कि असम में हुआ, गैर-राष्ट्रीय प्रवासियों की निष्फल खोज में इस तरह का पंजीकरण अभियान ऐसे नागरिकों को अपनी नागरिकता खोने की जोखिम की ओर धकेल सकता है, जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने का कोई दस्तावेज नहीं है। अमूमन गैर-नागरिकों के पास नागरिकों की तुलना में दस्तावेज की उपलब्धता बेहतर होती है। दस्तावेज के नहीं होने के डर से पहले ही कई लोग आत्महत्या कर चुके हैं; और हमें ऐसी और घटनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए।          
 अन्य बातों के साथ-साथ कटऑफ तिथि को लेकर भी अनिश्चितता कायम है। असम के बाहर मार्च, 1971 तक के कटऑफ तिथि बेमानी है। शेष भारत के लिए जुलाई, 1948 कटऑफ तिथि होने की अटकलें लगाई जा रही हैं पर संवैधानिक प्रावधानों, बंटवारे के बाद  की न्यायिक व्यवस्था और नागरिकता अधिनियम, 1955 को देखते हुए यह स्वीकार्य नहीं होगा। दूसरा, क्या असम की तरह ही, एनआरसी में पंजीकरण आवश्यक होगा या स्वैच्छिक और अगर कोई इसमें पंजीकरण नहीं कराता है तो उसे इसके क्या परिणाम भुगतने होंगे? और अंत में, संघीय ढांचे की यह मांग है कि इस मामले में राज्यों की सहमति प्राप्त की जाए।
एनआरसी के तहत स्वीकृत धारणा है कि घुसपैठिए बांग्लादेशी (मुसलमान) हैं जिनको मताधिकारों से वंचित करना जरूरी है, और उन्होंने जो गैरकानूनी तरीके से नागरिकता हासिल कर रखी है वह उनसे छीन लिए जाएं। सीएबी के तहत जिन्हें नागरिकता देने की बात कही गई है वे विशेष धार्मिंक समूहों के है पर इनमें मुसलमान शामिल नहीं हैं। इन लोगों को त्वरित गति से नागरिकता दिलाई जाएगी क्योंकि ये अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के प्रताड़ित अल्पसंख्यक हैं। विधेयक पड़ोसी देशों में कट्टरपंथी धार्मिंक प्रताड़ना के शिकार लोगों जैसे अहमदियों या रोहिंग्या के लिए इस तरह की राहत की बात नहीं करता। भारत में अल्पसंख्यकों की पारिस्थितिकी कुछ इस तरह की है कि कोई भी आश्वासन मुसलमान नागरिकों की चिंताओं को दूर नहीं कर पाएगा।  इसके योजना के खिलाफ सबसे बाध्यकारी दलील है कि हमारे देश के नाजुक और मिश्रित सामाजिक ताने-बाने पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
(लेखक जेएनयू में पढ़ाती हैं)

एन जी जयाल


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