आर्थिक : कृषि विकास की सही राह

Last Updated 04 Dec 2019 03:36:34 AM IST

विश्व स्तर पर आर्थिक विकास की बड़ी विसंगति रही कि उसमें किसान और कृषि से न्याय नहीं हुआ है।


आर्थिक : कृषि विकास की सही राह

अमेरिका में तेज आर्थिक विकास की राह पर चलते हुए लाखों किसानों की आजीविका छिन गई। सोवियत संघ के न्यायसंगत विकास के दावों के बीच लाखों किसान तबाह हो गए। चीन में विकास की ‘बड़ी छलांग’ के दौर में किसानों ने असहनीय कष्ट सहे। भारत में तेज जीएनपी वृद्धि के दावों के बीच किसानों का संकट और असंतोष गहराता रहा है।
कृषि विकास की बुनियाद उपजाऊ  मिट्टी और जल उपलब्धि से जुड़ी है पर विश्व के अधिकांश कृषि क्षेत्रों में पिछले सात दशकों के तेज विकास के दौर में ही भूमि का उपजाऊपन तेजी से कम हुआ है, और भूजल-स्तर भी नीचे गया। तालाब और अन्य प्राकृतिक जल-स्त्रोत तेजी से घटे या प्रदूषित हुए। अच्छी खेती के लिए मित्र कीट-पतंगें-पक्षी, उनके द्वारा होने वाला परागीकरण और आसपास की प्रकृति का संतुलन जरूरी है पर इन सभी का तेजी से हृास हुआ। इस स्थिति में स्पष्ट नहीं है कि विश्व स्तर पर कृषि-विकास के बड़े-बड़े दावों का आधार क्या है। अच्छी कृषि मूलत: प्रकृति और प्राकृतिक प्रक्रियाओं की बेहतर समझ पर आधारित है।

मनुष्य की भूमिका यह है कि प्राकृतिक प्रक्रियाओं को समझकर, इन्हें बिगाड़े बिना, जरूरी खाद्य या अन्य फसलों का टिकाऊ उत्पादन करे। अच्छी खेती के लिए जरूरी है कि आसपास के प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर से बेहतर उपयोग हो। खेती में मददगार सूक्ष्म जीवों, केंचुओं, कीट-पतंगों आदि की रक्षा की जाए। आसपास की हरियाली, खेती में उपयोगी पशु-पक्षियों, मिट्टी और जल की रक्षा की जाए। यह सब निष्ठा, मेहनत और समझदारी के कार्य हैं जिन पर बाहरी खर्च न्यूनतम है। विशेषकर तब जब किसानों के पास जरूरत के अनुकूल बीज पर्याप्त हों, सिंचाई के लिए कुएं, तालाब या अन्य जल-स्त्रोत पर्याप्त हों। गांव में समता-आधारित भूमि-वितरण के कारण सभी परिवारों के पास भूमि और पशु हों तो सभी परिवार सामान्य समय में न्यूनतम खर्च पर अपनी जरूरत के खाद्य प्राप्त कर सकेंगे।  बिक्री के लिए और कुछ अतिरिक्त फसल और दूध-घी आदि का उत्पादन भी कर सकेंगे। इस तरह के न्यूनतम खर्च के पर्याप्त और टिकाऊ उत्पादन के लिए ध्यान में रखना होगा  कि जिन प्राकृतिक प्रक्रियाओं में यह संभव है, वे बनी रहें यानी जरूरी प्राकृतिक संसाधन बने रहें। विविधता से भरे परंपरागत बीज और उनसे जुड़ी खेती-किसानी का परंपरागत ज्ञान बना रहे। सही कृषि विकास में बड़ी बाधा रही है कि किसान की भलाई को ध्यान में रखकर कृषि का विकास नहीं हो पाया। प्राय: किसान-खेती की भलाई के नाम पर जो भी किया गया वह किसी बाहरी हित को बढ़ाने के कार्य थे। यदि यह भली-भांति संभव है कि किसी बाहरी व्यय के बिना अच्छी गुणवत्ता की पर्याप्त फसलें प्राप्त की जाएं तो भी इन उपायों को उपेक्षित करके जोर इस पर दिया गया कि कैसे रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, बीज, मशीन आदि का उपयोग बढ़ाया जाए। सभी कृषि कार्यों में औद्योगिक बिक्री कैसे बढ़ाई जाए। विश्व स्तर पर इस ओर ध्यान केंद्रित किया जाए कि कृषि क्षेत्र से अधिशेष निकालकर उसका उपयोग औद्योगिक विकास विशेषकर भारी उद्योगों के लिए किया जाए। इस कारण विश्व में अनेक देशों के किसानों को दबा कर रखने पर अधिक जोर दिया गया जबकि उनकी भलाई का सवाल या उनकी आजीविका हितों की रक्षा का सवाल तो पीछे छूट गया।
एक अन्य इससे जुड़ा उद्देश्य यह रहा कि अल्पकाल में किसी तरह शहरों और औद्योगिक मजदूरों के लिए पर्याप्त, सस्ते खाद्य प्राप्त कर लिए जाएं जबकि खेती-किसानों के दीर्घकालीन हितों की उपेक्षा की गई। जब सोच ही सही नहीं थी, उद्देश्य ही ठीक नहीं थे तो खेती-किसानी के उचित विकास और किसानों की आजीविका की दीर्घकालीन रक्षा का सवाल ही नहीं था। इस अनुचित सोच और इस पर आधारित नीतियों के कारण खेती-किसानी की क्षति हुई पर इस सोच को ठीक किए बिना इस विकृत दिशा में अधिक तेजी से बढ़ने के लिए बहुत ताकतवर स्वार्थ निरंतर दबाव बना रहे हैं। ऐसे प्रयास सफल हुए तो पूरे विश्व की कृषि और खाद्य व्यवस्था का केंद्रीकरण चंद बड़ी कंपनियों के हाथ में हो जाएगा जो पूंजी-सघन तकनीकों, अति मशीनीकरण और रोबोटीकरण, जीएम तकनीक और बीजों के आधार पर विश्व की खाद्य एवं कृषि व्यवस्था पर राज करेंगी। अत: अब यह पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है कि खेती-किसानी और किसानी के सही वास्तविक हितों को ध्यान में रखकर सही कृषि नीति अपनाई जाए।

भारत डोगरा


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