मीडिया : संकटों की सेल

Last Updated 01 Dec 2019 12:41:41 AM IST

यों हमारे चैनलों की प्राण-वायु प्रायोजकों और विज्ञापकों से मिलती है। वे न हों तो चैनल न चलें। लेकिन इन दिनों विज्ञापनों की जगह कुछ ‘स्पार्न्‍सड फीचर्स’ लेने लगे हैं।


मीडिया : संकटों की सेल

हमारे मीडिया को मालूम है अगर कोई चीज सबसे बढ़िया तरीके से बिकती है तो वह है ‘संकट’। संकट का मतलब है ‘डर’! किसी न किसी प्रकार का संकट! किसी न किसी चीज का डर! संकट या डर इसलिए बिकता है क्योंकि वह एक तंग करने वाला आइडिया होता है। ‘असुरक्षा’ का भाव पैदा करने वाला होता है। संकट का विचार लोगों को डराता है और डरा हुआ आदमी ही सबसे भीरु और दयनीय  होता है।
डर-डर के उसका नर्वस सिस्टम इतना कमजोर हो जाता है कि वह वक्त आने पर किसी अति का प्रतिरोध नहीं कर पाता! इस तरह हमारा मीडिया में हमें सिर्फ डर-डर कर जीना सिखाता है। इस डर के अपने फलागम हैं। ऐसे आदमी का आत्मविश्वास हिल जाया करता है। उसका नर्वस सिस्टम कमजोर हो जाता है, और ऐसा समाज किसी ताकतवर के लिए सबसे अच्छा चरागाह बनता है। हमने देखा कि मीडिया ने पिछले पूरे दो-तीन महीने पर्यावरण और हवा के संकट को बेचा। जब हवा कुछ ठीक हुई तो उसने ‘पानी का संकट’ बेचना शुरू कर दिया। इन दिनों बड़े-बड़े हीरो- हीरोइन खबर चैनलों में आ-आकर हमें समझाने लगते हैं कि पानी अमूल्य है। पानी बचाना है। अगर पानी नहीं बचाया तो मनुष्य जाति ही न बचेगी। आने वाले दिनों पानी को लेकर युद्ध होंगे। अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा यानी अगर हमें विश्व को ‘पानी युद्ध’ से बचाना है, तो पहले  पानी को बचाना है। लेकिन यह सारा उपदेश उनके लिए नहीं है, जो इसे हमें देते हैं, बल्कि असल में हमारे लिए है। स्वयं तो बड़े-बड़े हीरो-हीरोइन बड़े घरों में रहेंगे। बड़े-बड़े बाथ टबों में बड़े शावरों में दर्जनों गैलन पानी से रोज नहाएंगे लेकिन हमसे कहेंगे कि पानी को बचाओ। हमें कहेंगे कि पानी के लिए युद्ध से बचना है, तो पानी बचाओ लेकिन अपने लिए पानी के खरचे में कमी न आने देंगे।

हमें तो लगता है कि वे हमें पानी बचाने को इसलिए कहते हैं कि ताकि उनके लिए ढेर सारा पानी बचा रहे। वे हमारी जीवन शैली को कंट्रोल करना चाहते हैं ताकि उनकी ऐशो-आराम की जिंदगी में खलल न पड़े। ऐसे कार्यक्रमों की ‘प्रायोजक’, प्राय: पानी शुद्ध करने वाली ब्रांड मशीनें होती हैं। इनमें से पानी को शुद्ध करने का एक पॉपुलर सिस्टम ‘आर ओ’ सिस्टम है। सब ‘आर ओ’ ‘आर ओ’ अपनाने को चिल्लाते हैं, लेकिन ऐसा कहते वक्त कोई यह नहीं बताता कि ‘आर ओ’ सिस्टम से निकला एक लीटर शुद्ध पानी उतनी ही मात्रा में अशुद्ध पानी को बाहर फेंकता है। उसकी एक पाइप शुद्ध पानी फेंकती है, तो दूसरी अशुद्ध को फेंकती है।
जाहिर है कि ‘आर ओ’ प्रणाली अपने आप में पानी को नष्ट करने वाली है। वह जितना पानी शुद्ध करती है, उतना ही अशुद्ध भी करती है। एक लीटर शुद्ध पानी करने की प्रक्रिया में वह उतने ही पानी को अशुद्ध बनाकर फेंकती है। हम एक लीटर पानी के लिए दो लीटर खर्च करते हैं। बताइए, जो सिस्टम एक की जगह दो गुना पानी खर्चता हो उसके चलते पानी कैसे बच सकता है? लेकिन आज पानी को शुद्ध करने के जितने विज्ञापन है, सब आर ओ सिस्टम के ही होते हैं। अब आकर कुछ हीरो कहने लगे हैं कि अशुद्ध पानी को आप अपने बाग-बगीचे के लिए उपयेग में ला सकते हैं। ऐसे लोग समझते हैं कि हिंदुस्तान में हर बंदे के पास एक गार्डन होता है। क्या कोई और सिस्टम नहीं हो सकता? कौन सोचे? वैकल्पिक तकनीक की कौन सोचे? पानी कॉरपोरेट सोचने दे तो सोचें। इसी तरह इन दिनों नई-नई बीमारियों का संकट भी बेचा जा रहा है, जिसे बेचने के लिए इन दिनों स्वयं डॉक्टर ही आ बिराजते हैं। अब तक विज्ञापनों में मॉडल आकर किसी ब्रांड को बेचा करते थे। जो डॉक्टर हमें टूथपेस्ट बेचा करता था, वह कोई मॉडल हुआ करता था जो सफेद कोट पहन, गले में स्टेथस्कॉप डाल चश्मा लगाए हमें खास ब्रांड का टूथपेस्ट बेचा करता था, लेकिन आजकल ऐसे मॉडल नहीं आते, बल्कि उनकी जगह किसी बड़े अस्पताल के कुछ नामी डॉक्टर ही आ बैठते हैं। इनकी सलाह मानें तो हिंदुस्तान का हर बाशिंदा पचासों तरह की बीमारियों का शिकार मिलेगा।
इनकी सुनने के बाद तो उसे सिर्फ डॉक्टर के पास या लैब में या अस्पताल में ही रहना है, और अपनी जेब ढीली करते रहनी है, लेकिन सबके पास इतना पैसा कहां? लेकिन ‘डर’ से बाजार बनता है। पहले हर एक को डराओ, फिर उसे दवा का या अपने विचार का खरीदार बनाओ, लेकिन ठीक होने की गारंटी फिर भी नहीं।

सुधीश पचौरी


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