वैश्विकी : वर्चस्व का कुरुक्षेत्र

Last Updated 01 Dec 2019 12:39:21 AM IST

अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक मान्य लेकिन अलिखित सिद्धांत यह है कि किसी नई महाशक्ति के उदय के समय युद्ध और अव्यवस्था पैदा होती है।


वैश्विकी : वर्चस्व का कुरुक्षेत्र

प्रथम विश्वयुद्ध की घटनाओं को जर्मनी के अभ्युदय और उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय लामबंदी के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। 21 वीं शताब्दी में इतिहास अपने को दोहराने जा रहा है। चीन दुनिया की एक नम्बर की महाशक्ति बनने की दहलीज पर है। अमेरिका अपना विश्व वर्चस्व आसानी से गंवाने के लिए तैयार नहीं है। हाल के वर्षो में अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध, दक्षिण चीन सागर में समुद्री सीमाओं को लेकर विवाद के साथ ही चीन के आंतरिक मसलों पर पश्चिमी देशोें की प्रतिक्रिया को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। अमेरिका और चीन के बीच इस रस्साकशी का नवीनतम अखाड़ा हांगकांग साबित हो रहा है। वहां पिछले छह महीनों से लोकतंत्र समर्थकों का अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन जारी है। इसी बीच वहां हुए स्थानीय चुनावों में लोकतंत्र समर्थकों ने अभूतपूर्व विजय हासिल की है। जाहिर है, हांगकांग चीन के लिए गले की हड्डी साबित हो रहा है।

चीन को इसके पहले तिब्बत में दलाई लामा और उनके समर्थकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। दलाई लामा को भारत में शरण देने और तिब्बत के बारे में नई दिल्ली की उदासीनता के कारण दुनिया की छत (तिब्बत) पर चीन की पकड़ मजबूत होती गई। तिब्बत की आजादी तो दूर की बात तिब्बत को वास्तविक अथरे में स्वायत्तता दिलाने का लक्ष्य भी दुष्कर हो गया।  चीन को अपने मुस्लिम बहुसंख्यक वाले प्रांत शिनजियांग में इस्लामी आतंकवाद का सामना करना पड़ा है। भारत के विपरीत चीन ने जेहादी विचारधारा और मानसिकता का समूल उन्मूलन करने के लिए निर्मम तरीका अपनाया है। शिनजियांग के मुस्लिम मतावलम्बी उइगर समुदाय के हजारों युवक-युवतियों को घर-परिवार की पहुंच से दूर प्रतिबंधित स्थानों पर रखा गया है। चीन इन केंद्रों को प्रशिक्षण विद्यालय बताता है जबकि अमेरिका सहित पश्चिमी देशों का कहना है कि यह यातना शिविर है। पश्चिमी मीडिया इन शिविरों की तुलना जर्मनी में हिटलर की यहूदी विरोधी करतूतों और पूर्व सोवियत संघ के साइबेरिया के यातना शिविरों से कर रही है। इन सारी आलोचनाओं को चीन नजरअंदाज कर रहा है।

हांगकांग के हालात इससे अलग हैं। साल 1997 में यह ब्रिटेन के उपनिवेशवादी शासन से मुक्त हो कर चीन के आधिपत्य में आ गया था। यह हस्तांतरण इस सहमति के आधार पर हुआ था कि हांगकांग की लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था, मुक्त व्यापार प्रणाली, भाषा और संस्कृति को बरकरार रखा जाएगा। कम्युनिस्ट चीन ने ‘एक राष्ट्र दो शासन प्रणाली’ के सिद्धांत के तहत इस बात की गारंटी दी थी। चीन को उम्मीद थी कि धीरे-धीरे हांगकांग का चीनीकरण हो जाएगा। लेकिन उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। चीन ने जब एकीकरण के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सख्त उपाय किये तो इसकी व्यापक प्रतिक्रियाएं हुई और जबर्दस्त आंदोलन छिड़ गया। यह आंदोलन इतना उग्र हो गया कि दुनिया में विश्व अर्थव्यवस्था और कारोबार के मुख्य केंद्र के रूप में हांगकांग की साख गिरती चली गई और उसके भरोसे पर ही सवाल खड़ा हो गया।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले दिनों कहा था कि यदि वे नहीं होते तो हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन 10 मिनट में दम तोड़ देता। यह सही है कि चीन सरकार ने हांगकांग के आंदोलन के खिलाफ अभी तक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई पुलिस या सैन्य कार्रवाई नहीं की है। हांगकांग की पुलिस और वहां के चीन समर्थक मुख्य प्रशासक कैरी लैम ही हालात से निपट रहे हैं। हालांकि हांगकांग के सीमवर्त्ती क्षेत्र में चीनी सेना का भारी जमावड़ा है। यदि हालात ज्यादा गंभीर हुए तो चीनी सैनिक हस्तक्षेप कर सकते हैं। हांगकांग में तेज होते आंदोलन और चीन समर्थक प्रशासन के बीच बढ़ते तनाव के दौरान ही अमेरिकी राष्ट्रपति ने चीन को निशाना बनाते हुए विधेयकों पर हस्ताक्षर किये हैं। इन कानूनों में हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक लोगों के खिलाफ चीन की किसी संभावित कार्रवाई होने पर चीन के विरुद्ध प्रतिबंध और दंडात्मक उपाय करने के प्रावधान हैं। इसको लेकर आगबबूला हो उठे चीन ने अमेरिका के खिलाफ कार्रवाई की धमकी दी है। हालांकि इसकी कोई उम्मीद नहीं है। अलबत्ता, नये कानून के मुताबिक चीन के विरुद्ध अमेरिकी कार्रवाई की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।

डॉ. दिलीप चौबे


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