स्कूली शिक्षा : सुधार के उपेक्षित पक्ष

Last Updated 18 Nov 2019 12:07:44 AM IST

कम उम्र से बच्चों को बेहतर गुणवत्ता की शिक्षा देने के बारे में सामाजिक जागरूकता काफी तेजी से बढ़ी है।


स्कूली शिक्षा : सुधार के उपेक्षित पक्ष

इसकी एक अभिव्यक्ति निजी क्षेत्र के स्कूलों में बच्चों के अधिक एडमीशन के रूप में देखी जा सकती है। इन स्कूलों में फीस व अन्य खर्च अधिक होने पर भी सरकारी स्कूलों की अपेक्षा उनमें बच्चों का एडमीशन करवाया जा रहा है और यह प्रवृत्ति दूर-दूर के गांवों व शहरों की स्लम बस्तियों में भी तेजी से जोर पकड़ रही है। दूसरी ओर बेहतर शिक्षण क्षमता के लिए जरूरी कुछ अन्य पक्षों की अवहेलना भी हो रही है अपितु संभवत: बढ़ रही है।
बच्चों में शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता उस समय ज्यादा होती है जब वे भली-भांति नींद पूरी कर उठते हैं। लगभग आठ घंटे की नींद बच्चों के लिए उचित समझी जाती है। हालांकि विभिन्न बच्चों के लिए इसमें कुछ विविधता हो सकती है। किन्तु आजकल प्राय: बच्चों को नींद पूरी होने से पहले ही उठा दिया जाता है। इसकी एक वजह यह है कि विभिन्न कारणों (जैसे टीवी/मोबाइल) से अनेक बच्चे कुछ देर से सोते हैं। अनेक बच्चों के लिए सोने की स्थितियां बहुत आरामदायक नहीं होती हैं।

ज्यादा संख्या में बच्चों को दूर के स्कूल में बस से जाना होता है और इस कारण बहुत जल्दी उठना होता है। वजह जो भी हो पर प्राय: बच्चे नींद पूरी नहीं कर पाते हैं। उन्हें प्राय: इस तरह के वाक्यों से उठाया जाता है-‘बहुत देर हो गई है’, ‘आज फिर देर करोगे’, ‘बस निकल जाएगी’ आदि। अत: बच्चे के दिन का आरंभ ही किसी अरुचिकर वाक्य से या कुछ इच्छा के विरुद्ध जबरदस्ती करने से होता है। प्राय: बच्चों को ठीक से ड्रेसअप करने, यूनीफार्म पूरी तरह सही होने पर अब पहले से अधिक जोर दिया जाता है। यह तैयारी बहुत जल्दबाजी में करनी होती है अत: शौच, सफाई व नाश्ते के लिए समय काफी कम मिलता है। सब कुछ बहुत हड़बड़ाहट में करना पड़ता है। नाश्ते के लिए समय कम बचता है और जल्दबाजी में ठीक नाश्ता व टिफिन कई बार तैयार भी नहीं होता है। अत: पौष्टिक नाश्ते के स्थान पर कई बार चिप्स, बिस्कुट या फॉस्ट फूड आदि से ही काम चलाया जाता है। दूसरी ओर कई निर्धन परिवारों के बच्चे लगभग भूखे पेट ही स्कूल चले जाते हैं। अनेक स्कूलों में यूनिफार्म में थोड़ी सी कमी रहने पर भी बच्चे को लाईन से अलग कर दिया जाता है या सजा दी जाती है। प्राय: बच्चों को बहुत भारी बस्ता लेकर जाना पड़ता है और इस बस्ते की कोई किताब-कॉपी घर रह जाए तो कठिनाई बढ़ जाती है। अधिक प्रतिस्पर्धा भरे माहौल में पढ़ने से जो तनाव उत्पन्न होते हैं वे अलग समस्या हैं। नींद पूरी न होने और तनाव के माहौल में शिक्षा ग्रहण करने में कठिनाई होती है, विशेषकर यदि शिक्षा बहुत रोचक न हो। स्कूल जाने, वहां पढ़ने, स्कूल से लौटकर पढ़ने की पूरी दिनचर्या बहुत बंधी हुई सी है और इसमें रचनात्मकता के खिलने, निखरने की संभावना कुंठित होती है। किन्तु इससे भी अधिक चिंताजनक पक्ष यह है कि नैतिकता के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्ष स्कूली शिक्षा के दौर में मजबूती से स्थापित हो जाएं, इसका कोई समग्र व व्यापक प्रयास अभी नजर नहीं आ रहा है। अनेक स्कूलों में किसी एक धर्म के संकीर्ण दायरे में कुछ नैतिक उपदेश दिए जाते हैं तो साथ में कुछ सांप्रदायिक व कट्टरवादी संदेश भी दे दिए जाते हैं। कुछ अध्यापक अपने स्तर पर कुछ नैतिकता के संदेश बच्चों तक पहुंचाने का आधा-अधूरा प्रयास करते हैं। दूसरी ओर जरूरत तो इस बात की है कि नैतिकता के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों को रोचक ढंग से स्कूली शिक्षा में समावेश करने का एक समग्र व व्यापक प्रयास होना चाहिए।
कुछ अति महत्त्वपूर्ण नैतिक गुणों पर आम सहमति बन सकती है। सभी मनुष्यों की समानता में विश्वास, किसी से नफरत व भेदभाव नहीं, सभी जीवन-रूपों के प्रति करुणा, पर्यावरण की रक्षा, विभिन्न स्तरों पर ईमानदारी कमजोर व निर्धन की सहायता के लिए प्रतिबद्धता, अहिंसा यह कुछ ऐसे नैतिक गुण हैं, जिन पर आम सहमति बना कर इनका समावेश समग्र व रोचक रूप में स्कूल की शिक्षा में अवश्य करना चाहिए। इक्कसवीं शताब्दी की बहुत बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए जो जीवन-मूल्य चाहिए, उन्हें विकसित करने के लिए तो अब यह और भी जरूरी हो गया कि इसकी बुनियाद स्कूली शिक्षा में तैयार हो। जब तक इन सब संरचनाओं में व्यापक सुधार नहीं होगा; स्कूली शिक्षा में सुधार की बात बेईमानी होगी। इस नाते सरकार, शिक्षण संस्थाओं, प्रोफेशनल्स आदि को इस विषय पर कुछ ठोस और दूरगामी तथ्य रखने होंगे।



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