मीडिया : मीडिया का प्रदूषण-चिंतन
दिल्ली गैस चेंबर है! दिल्ली की हालत खराब है! दिल्ली की हवा में जहर है! दिल्ली में सांस लेना दूभर है! हमें सांस लेने का हक है।
मीडिया : मीडिया का प्रदूषण-चिंतन |
जिस दिन कोई बड़ी राजनीतिक कहानी ‘ब्रेक’ नहीं होती, उस दिन खबर चैनल दिल्ली की हवा को खतरनाक बताकर डराने लगते हैं : दिल्ली दुनिया के मेट्रोज से चार गुना अधिक प्रदूषित है। उत्तर प्रदेश के चार-पांच बड़े शहर सबसे अधिक प्रदूषित हैं और गाजियाबाद सबसे अधिक प्रदूषित है। दिल्ली की हवा में आठ तरह के अति खतरनाक कैंसरकारी कण घुले हैं..।
पिछले बरसों की तरह इस बार भी पिछले एक महीने से मीडिया ने ऐसा डर फैलाया है कि लगता है हम अब मरे कि अब मरे। आप डॉक्टर के पास जाएं तो वो कहने लगता है कि इसका कारण प्रदूषित हवा है। कोई-कोई तो काले फेफड़े निचोड़कर बताता है कि अगर ध्यान न दिया तो आपके फेफड़े ऐसे ही हो जाने हैं, कि आम दिल्ली वाला बिना पिए ही बीस-तीस सिगरेट का धुआं पीता रहता है। दिल्ली की हवा खराब होने के कई कारण बताए जाते हैं। एक पंजाब के किसानों का पराली जलाना बताया गया।
दूसरा है दिल्ली में चलते निर्माण कार्यों से धूल का उड़ते रहना; तथा तीसरा है दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाली साठ सत्तर लाख गाड़ियां, ऑटो और डीजल चालित छोटे ट्रक, टेंपू आदि। इससे निपटने के लिए दिल्ली सरकार ‘ऑड ईवन’ नीति से कारों की संख्या में कुछ दिन के लिए कमी करती है, तो दिल्ली भाजपा के बड़े नेता और सांसद ‘ऑड ईवन’ का गलत गाड़ी चलाकर विरोध जताने लगते हैं, और दिल्ली की हवा के लिए दिल्ली सरकार को दोष ठहराने लगते हैं। मानो हवा का प्रशासन भी दिल्ली सरकार के कंट्रोल में हो! जबकि हवा पर तो भगवान का भी बस नहीं! वह तो मौसम के गणित से परिचालित होती है। तेज हवा चलती है तो दिल्ली का आसमान साफ हो जाता है वरना खराब हवा ऊपर ठहरी रहती है। लेकिन तोहमत दिल्ली सरकार को ही झेलनी होती है। मानो हवा को भी दिल्ली सरकार बनाती हो!
मीडिया जिस तरह से दिल्ली की हवा के खतरनाक होने का अभियान चला रहा है, उससे लगता है कि उसकी चिंता पर्यावरण कम और दिल्ली की राजनीति तथा ‘हवा का बिजनेस’ अधिक है। राजद के राज्य सभा सांसद मनोज झा ने एक चैनल पर सही कहा कि दो-तीन महीने बाद यह मुद्दा भी गायब हो जाना है! ‘दिल्ली रहने लायक शहर नहीं है’-ऐसा अभियान चलाने वाले चैनल तब भी नई-नई कारों के विज्ञापन देते रहते हैं। दिल्ली की हवा को बेहतर करने के लिए दिल्ली की सड़कों से पंद्रह बरस पुरानी कारों को हटाया गया है। इस नीति के कारण अच्छी गाड़ियां तक कबाड़ के भाव बिक रही हैं, और चोरी चुपके छोटे शहरों और गांवों में जा रही हैं। इतनी गाड़ियां हटने के बावजूद दिल्ली की हवा बेहतर नहीं हुई? क्यों? क्योंकि हवा जितनी खराब है, उसे खराब ‘बताने की राजनीति’ उससे भी अधिक खराब है। प्रदूषण एक बड़ा बिजनेस है। उसकी एक बड़ी लॉबी है जिसके पीछे एनजीओ हैं, जिनके पीछे कॉरपोरेट खड़े हैं।
एक क्रिकेटर जिन चैनलों में कल तक सिगरेट पीने से होने वाले नुकसान को बताया करता था, उन्हीं चैनलों पर आज ‘एअर प्यूरी फायर’ बेचता है। अमीरों, बड़े नेताओं, बिजनेसमैनों और खाती-पीती उच्च मिडिल क्लास के घरों में ‘एअर प्यूरी फायर’ इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कुछ मेट्रोज में तो ‘ऑक्सीजन बार’ भी खुल गए हैं : इतने रुपये दीजिए और इतने समय तक ऑक्सीजन लीजिए! खाती-पीती मिडिल क्लास को सिर्फ अपनी ‘हेल्थ’ की चिंता होती है। ‘मास्क’ उसके लिए एक ‘फैशन स्टेटमेंट’ भी है। मास्क की भी ‘इकनातिक राजनीति’ है। एक ‘मास्क’ विशेषज्ञ बता चुके हैं कि मामूली ‘मास्क’ मोटे जहरीले कणों को ही रोक पाते हैं, जहरीली गैसों को नहीं रोक पाते। इस प्रकार का प्रदूषण चिंतन ‘एनजीओ चिंतन’ है, उनके पीछे खड़े ‘बड़े कॉरपोरेटों’ का चिंतन है।
इसी दिल्ली में निन्यानबे फीसद निम्नवर्गीय नौकरीपेशा लोग, लाखों रिक्शे वाले, लाखों आटो वाले, ठेली वाले खोमचे वाले रहते हैं। इसी दिल्ली में पचास लाख लोग झुग्गियों में रहते हैं। इसी दिल्ली में अधिसंख्य लोग पच्चीस-पचास वर्ग फीट के घरों में रहते हैं। वे पंद्रह-बीस हजार का आपका ‘एअर प्यूरी फायर’ कैसे खरीदें और घर में लगाएं? कैसे आपके ‘ऑक्सीजन बार’ से ऑक्सीजन पिएं और जिएं? फिर, ‘एअर प्यूरी फायर’ जिस हवा को साफ करेंगे तो उसकी गंदगी कहां जाएगी? यह तो वही एसी वाली बात हुई कि हम एसी लगाते हैं, और आप उसकी बाहर फेंकी गरम प्रदूषित हवा को पीते हैं।
यह है मीडिया के प्रदूषण-चिंतन!
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