कश्मीर : सरकार करेगी ’स्ट्राइक‘!
जम्मू शांत है, लद्दाख प्रशांत। छोटी सी कश्मीर घाटी भी बनिस्बत शांतिपूर्ण है। वाषिर्क अमरनाथ यात्रा निर्विघ्न और शांति से पूरी हो रही है, और तीर्थ यात्री उत्साह से सराबोर।
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हर दिन उनकी संख्या बढ़ रही है। भारत और विदेशों से सैलानी बड़ी संख्या में श्रीनगर पहुंच रहे हैं। स्थानीय निवासी चांदी काट रहे हैं। सुरक्षा बल अपने काम को अच्छे से अंजाम दे रहे हैं। बचे-खुचे आतंकवादियों को निपटाने में जुटे हैं।
लेकिन जम्मू-कश्मीर 26 जुलाई के बाद चार असामान्य परिघटनाओं का गवाह बना है। पहली, राज्य में सुरक्षा बलों की 100 अतिरिक्त कंपनियों की तैनाती। इनमें से 80 कश्मीर और 20 जम्मू और लद्दाख में तैनात की गई हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल के राज्य के दो दिनी दौरे के पश्चात यह तैनाती की गई। दूसरी, रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) के एक अधिकारी ने पत्र लिखकर अपने मातहतों से ‘चार माह का राशन तैयार रखने और स्थिति के खराब होने की आशंका के मद्देनजर जरूरी उपाय करने को कहा है।’
तीसरी, भाजपा आला कमान के राज्य में चुनाव कराने संबंधी रुख को देखते हुए पार्टी के कोर ग्रुप की 30 जुलाई को नई दिल्ली में बैठक जिसमें राज्य की राजनीतिक स्थिति की समीक्षा की गई। ऐसा पिछले सत्तर वर्षो में पहली बार हुआ है। चौथी, पांच क्षेत्रीय पुलिस अधीक्षकों को दिए गए आदेश में श्रीनगर शहर में स्थित मस्जिदों और उनकी इंतजामिया कमेटियों की सूची भेजने का निर्देश दिया गया है। 28 जुलाई की रात भेजे इस पत्र में कहा गया है, ‘अपने अधिकार क्षेत्र में पड़ने वाली मस्जिदों और उनकी इंतजामिया कमेटियों की जानकारी संलग्न प्रारूप के अनुसार श्रीनगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के कार्यालय को प्रेषित करें।’
इन चारों परिघटनाओं पर जम्मू, लद्दाख और कश्मीर में उम्मीद के मुताबिक रुख देखा गया। जम्मू प्रांत में भेदभाव के शिकार और कट्टर इस्लामपरस्तों के डर के साये में रह रहे लोगों ने इन सभी परिघटनाओं का स्वागत किया। हिमालय-पार लद्दाख के लोगों में भी ऐसा ही भाव देखा गया। अलबत्ता, कश्मीर घाटी में इन परिघटनाओं के खिलाफ तीव्र नकारात्मक प्रतिक्रिया हुई। खासकर श्रीनगर में जो भारत-विरोधी तमाम गतिविधियों का केंद्र बना रहा है। कश्मीर के तमाम तथाकथित मुख्यधारा के नेता बेचैन हो गए। इनमें नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) के फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की महबूबा मुफ्ती, पीपुल्स कांफ्रेंस (पीसी) के सज्जाद लोन और अफसरशाह से अर्ध-अलगाववादी नेता बने शाह फैसल तथा नवगठित पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) के अलगाववादी नेता अब्दुल रशीद शामिल हैं। सभी इन घटनाक्रमों से सदमे में हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार से बेहद नाराज हैं; आरएसएस से नाराज हैं, भाजपा से नाराज हैं।
वे कोई कसर नहीं छोड़ रहे समूची घाटी में सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने में। चाहते हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ सांप्रदायिक विस्फोट जैसा कुछ हो जाए। वे मासूम कश्मीरी मुस्लिमों को यह कहकर भयभीत करते रहे हैं कि उनकी अपनी पहचान पर ही संकट गहरा गया है; राज्य का विशेष दरजा खतरे में पड़ गया है; उनकी आजादी खतरे में पड़ गई है। मुस्लिम बहुसंख्या को कम करने के लिए कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदले जाने की तैयारी है। वे गला फाड़-फाड़ कर कश्मीरी मुस्लिमों को बताते रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार कश्मीर में आरएसएस का एजेंडा लागू करने के लिए अनुच्छेद 35ए (अवैध) तथा अनुच्छेद 370 (अस्थायी) को खत्म करने की तैयारी में है। वे आरएसएस और भाजपा को सांप्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी करार दे रहे हैं।
फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला धमकी दे रहे हैं कि अनुच्छेद 35ए तथा अनुच्छेद 370 खत्म किए गए तो जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। उनका तर्क निंदनीय है। वे कश्मीरी मुस्लिमों से आग्रह करते रहे हैं कि एकजुट होकर पूरी ताकत से ‘शत्रु’ को पराजित करने के लिए लड़ें। शिकस्त खाई और कुंठित महबूबा मुफ्ती धमकी दे रही हैं कि जो हाथ अनुच्छेद 35ए को छुएगा उसका पूरा शरीर जलकर खाक हो जाएगा। वह कश्मीरी मुस्लिमों से नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ लड़ाई की तैयारी करने को कह रही हैं। इतनी व्यथित हैं कि अपने धुर विरोधी फारूक अब्दुल्ला से आग्रह किया है कि वह सर्वदलीय बैठक बुलाएं ताकि नई दिल्ली के ‘कश्मीर-विरोधी कदम’ को विफल करने के लिए कारगर रणनीति बनाई जा सके जिससे राज्य को प्राप्त विशेष दरजा बचा रह सके। अब्दुल्ला परिवार, शाह फैसल के संगी-साथी, सज्जाद लोन के साथी, महबूबा मुफ्ती के पार्टीजन और कांग्रेस में भी उनके जैसे विचार रखने वाले कश्मीर स्थित कांग्रेस नेता, सभी नई दिल्ली के खिलाफ एक जुट होकर मोर्चाबंदी में जुट गए हैं। महबूबा मुफ्ती तो पाकिस्तान तक से मदद की बात भी कह रही हैं। उल्लेखनीय बात यह कि घबराए हुए, अव्वल दरजे के अवसरवादी और भड़काऊ बयानबाजी के लिए प्रसिद्ध फारूक अब्दुल्ला ने महबूबा मुफ्ती का आग्रह स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कहा कि वह नई दिल्ली में सर्वदलीय बैठक बुलाने की कोशिश में हैं, ताकि कश्मीर पर कोई सहमति बनाई जा सके। इन नेताओं के अभियान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इससे वे स्वयं बेनकाब हो गए हैं। अपने शब्दों और कृत्यों से उन्होंने साबित कर दिया है कि उनकी सांप्रदायिक योजना में जम्मू और लद्दाख और किसी भी भारतीय के लिए कोई जगह नहीं है, अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 तथा भारतीय रुपये को छोड़कर। लेकिन यह सब अप्रत्याशित भी नहीं है। दशकों से उनका रवैया ऐसा ही रहा है। किसी भी लिहाज से देख लीजिए वे अलगाववादी हैं। इसलिए जो कुछ भी कह रहे हैं, उससे चौंकने की हमें कोई जरूरत नहीं है।
सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार जिहाद और कश्मीर में पृथकतावादी स्वरों को कुचलने की ठान बैठी है। अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 को खत्म करने का फैसला कर चुकी है। जवाब केवल प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय ही दे सकता है। लेकिन जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के सलाहकार के विजय कुमार का यह बयान काफी कुछ कहता है, ‘वह अफवाहों और कयासबाजियों पर कुछ नहीं कह सकते।’ बहरहाल, मोदी सरकार को दो बातें कर ही देनी चाहिए। पहली, अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 को तत्काल खत्म करे; और जिहाद के क्षेत्र को कश्मीर घाटी तक ही सीमित करने के लिए प्रांतीय आधार पर राज्य को पुनर्गठित करे। ये फैसले तत्काल करने ही होंगे।
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