स्वास्थ्य : भयावह कमी चिकित्सकों की

Last Updated 02 Aug 2019 06:41:23 AM IST

अपने देश में चिकित्सकों व अस्पतालों की कमी पर कभी विचार नहीं होता। पिछले दिनों नीति आयोग ने इस बात पर गहरी चिंता जाहिर की थी कि जिला अस्पतालों में डॉक्टरों, विशेषज्ञों व नसोर्ं वगैरह की उपलब्धता का हाल देश भर में बहुत बुरा है।


स्वास्थ्य : भयावह कमी चिकित्सकों की

प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के हालात अनुमान से भी ज्यादा खराब हैं और राजधानी दिल्ली समेत छ: राज्यों में मेडिकल स्टाफ के 40 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा पद खाली हैं। हां, केरल, तमिलनाडु और पंजाब में स्थिति थोड़ी बेहतर है, लेकिन उनके उलट छत्तीसगढ़ में 70 प्रतिशत व उत्तराखंड में 68 प्रतिशत डॉक्टर अनुपलब्ध हैं। इसी तरह, बिहार में, जो अभी चमकी बुखार से बड़ी संख्या में बच्चों की मौतों को लेकर चर्चा में था, चिकित्सकों के 59 प्रतिशत पदों पर नियुक्तियां नहीं हैं। कुल मिलाकर 82 प्रतिशत विशेषज्ञ-डॉक्टरों कमी है। वे सर्जन हों या बच्चों के डॉक्टर।
आंकड़ों के मुताबिक देश में 25 से 30 हजार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और करीब छ: हजार सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और नियमों के अनुसार हर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चार विशेषज्ञ डॉक्टर, सात नसिर्ंग स्टाफ, एक लैब टेक्नीशियन और एक फार्मासिस्ट होना चाहिए। लेकिन जमीनी हकीकत इन नियमों की ऐसी विलोम है कि वहां जो स्टाफ या डॉक्टर अनुपलब्ध होते या ड्यूटी पर नहीं होते, उनकी तो बात ही अलग, जो ड्यूटी पर होते हैं, उन्हें  बतलाना भी मरीजों व उनके परिजनों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होता। बहरहाल, अब नीति आयोग के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी नरेन्द्र मोदी सरकार को देश में चिकित्सकों की तादाद बढ़ाने का सुझाव दिया है, तो उसको समझ में नहीं आ रहा कि उस पर कैसे रिएक्ट करे? इसका एक कारण यह भी है कि इससे देश में सस्ती व बेहतर चिकित्सा सुविधाओं की सुलभता के उसके ढिंढोरे की  जिसके क्रम में मेडिकल टूरिज्म यानी विदेशों से इलाज के लिए भारत आने वालों का ग्राफ लगातार ऊंचा होते जाने के दावे की पोल इस तरह खुल गई है कि महत्त्वाकांक्षी आयुष्मान भारत व प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजनाओं की सफलताएं और राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण के गठन के प्रस्ताव भी उसे ढक नहीं पा रहे। 

अभी देश में औसतन 10,189 लोगों पर एक चिकित्सक ही उपलब्ध है और वैश्विक मानकों के अनुसार छ: लाख चिकित्सकों की कमी है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल-2018 के मुताबिक सबसे चिंताजनक स्थिति सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक आदि की है। बिहार में एक चिकित्सक पर औसतन 28,391, उप्र. में 19,962, झारखंड में 18,518, मध्य प्रदेश में16,996, छत्तीसगढ़ में 15,916 तथा कर्नाटक में 13,556 लोगों की सेहत की जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी कैसे निभती या निभाई जाती होगी, इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। एक विडम्बना यह भी है कि जो चिकित्सक हैं, वे ज्यादातर शहरों में हैं। उनमें से ज्यादातर की गांवों या दूर-दराज के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में जाने में कोई रुचि ही नहीं है, जबकि वहां 90 फीसद मौतों का संबंध बीमारियों से ही होता है। कुपोषण, प्रदूषण व अशिक्षा आदि की वजह से स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं और चिंताजनक हो जाती हैं। इसी के मद्देनजर अभी कुछ दिन पहले उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने चिकित्सकों से अपने गांव में काम करने और स्वास्थ्य केंद्रों को कारगर बनाने का आग्रह किया था, लेकिन ऐसे आग्रहों से जमीनी हकीकतें बदला करतीं, तो वे इतनी जटिल ही नहीं होतीं।
जानकारों के अनुसार, देश में करीब 11 लाख पंजीकृत और हर साल निकलने वाले 50 हजार नये चिकित्सकों की संख्या के बावजूद चिकित्सकों की इतनी बड़ी कमी बेहद आश्चर्यजनक है और इसकी पड़ताल की जरूरत है कि डिग्री व पंजीकरण के बाद ये चिकित्सक क्यों और कहां चले जाते हैं? जानकार पूछते हैं कि इसके पीछे खराब सरकारी नीतियां नहीं तो और क्या है? इस सवाल को इसलिए भी जवाब की ज्यादा दरकार है कि केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा बजट बढ़ोतरी के तमाम दावों के विपरीत देश में अभी सेहत पर जीडीपी का करीब सवा फीसद ही खर्च किया जा रहा है, जो अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले सबसे कम है। तिस पर केंद्र-राज्य सरकारों की सेहत सम्बन्धी योजनाओं और मौजूदा संसाधनों में तालमेल का भी घोर अभाव है। ऐसे में समझना कठिन नहीं है कि डॉक्टरों व मेडिकल स्टाफ की कमी के मूल में क्या है?

कृष्ण प्रताप सिंह


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