वैश्विकी : चुनौतियों के आगे विदेश नीति
नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में मंत्रिमंडल गठन में नया प्रयोग किया। विदेश मंत्रालय में एक अनुभवी लोकसेवक की पूर्ण कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्ति की।
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डॉ एस जयशंकर भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी रहे हैं। लंबे सेवाकाल में विभिन्न दूतावासों में दायित्व निर्वाह करने के साथ ही उन्होंने विदेश सचिव की जिम्मेदारी भी निभाई थी। अमेरिका और चीन में अपनी नियुक्ति के दौरान जयशंकर ने कई अवसरों पर जटिल मामलों को सुलझाया। डोकलाम में चीन के साथ हुए विवाद के दौरान नाजुक स्थिति को संभालने और चीन के साथ संबंधों को पटरी पर लाने में जयशंकर की भूमिका को सराहा गया। प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तय किया था कि दोनों देशों के मतभेदों को विवाद में नहीं बदलने देंगे। दिपक्षीय संबंधों में यह दूरगामी समझदारी का आधार बन सकता है। बदलते हुए वैश्विक शक्ति समीकरण में भारत को विभिन्न महाशक्तियों के साथ अपने संबंधों में संतुलन कायम करना है। अमेरिका-चीन के आपसी आर्थिक और सैनिक विवादों से बचते हुए भारत दुनिया में अपना स्थान बनाना चाहता है।
यह विचारणीय है कि विदेश मंत्री की भूमिका केवल अंतरराष्ट्रीय संबंध और कूटनीतिक मामलों तक ही सीमित नहीं रहती। विदेश नीति का वैचारिक आधार भी होता है। भाजपा और उसके संरक्षक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भारत की विश्व भूमिका को लेकर एक निश्चित विचार है। मोदी स्वयं कई बार कह चुके हैं कि भारत को विश्व गरु के रूप में प्रतिष्ठित करना है। यह देखने वाली बात होगी कि संघ या भाजपा की विचारधारा का कोई अनुभव नहीं रखने वाले जयशंकर अपनी विदेश नीति का क्या दायरा निश्चित करते हैं।
सबसे पहले कूटनीतिक कदम के रूप में विदेश मंत्रालय इस समय भारत और चीन के बीच दूसरी औपचारिक शिखर वार्ता की तैयारी में लगा है। इस बार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत आना है। दोनों देशों के बीच इस समय सीमा संबंधी कोई ज्वलंत विवाद नहीं है। आतंकी सरगना मसूद अजहर को लेकर पुरानी तल्खी भी दूर हो गई है। मोदी और चीनी राष्ट्रपति अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापार-युद्ध के संबंध में कोई साझा रवैया अपनाने पर चर्चा कर सकते हैं। इसी तरह दक्षिण चीन सागर और पश्चिम एशिया के बारे में भी दोनों देश बेहतर समझदारी कायम कर सकते हैं।
इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को व्यापार की दृष्टि से तरजीह देने वाले देशों की सूची से बाहर कर दिया है। भारत को मिली यह छूट आगामी पांच जून को समाप्त हो जाएगी। यह मोदी सरकार के लिए विदेश व्यापार के क्षेत्र में नई चुनौती है। हालांकि अमेरिका का यह फैसला व्यापार-युद्ध जैसा गंभीर मसला नहीं है, लेकिन भारत के व्यापारिक हितों की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है। भारत को इस सिलसिले में दोहरी रणनीति अपनानी होगी। एक ओर भारत का प्रयास होगा कि नई दिल्ली को मिलने वाली रियायत जारी रखने के लिए अमेरिकी प्रशासन को मनाने की कोशिश करे वहीं दूसरी ओर वह चीन के साथ मिलकर कोई जवाबी रणनीति तैयार करने पर विचार कर सकता है। भारत को चीन के साथ सहयोग और साझेदारी के रास्ते तैयार करने होंगे। चीन के साथ अगर सहयोगात्मक रिश्ते बनते हैं, तो चीन पाकिस्तान को हर मुद्दे पर जिस तरह से समर्थन देता है, उसमें कमी आएगी। विदेश मंत्री जयशंकर के लिए पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों को नियोजित करने की भी चुनौती होगी। भारत को आतंकवाद के विरुद्ध लगातार कठोर रुख अपनाना पड़ेगा लेकिन पाकिस्तान के साथ सहयोग के रास्ते भी खुले रखने होंगे। भारत सहयोग के सारे रास्ते बंद कर देता है, तो उसे खमियाजा उठाना पड़ेगा क्योंकि पड़ोसी को अलग-थलग करने की भी एक सीमा है, और भारत उस हद को पार नहीं कर सकता।
बहुध्रुवीय दुनिया में भारत अपनी स्वायत्तता स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। उसे दुनिया के सभी देशों के साथ अपने रिश्तों को मजबूत करना होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में पिछली बार की तरह ही विदेशी नेताओं को आमंत्रित किया। इस बार भारत ने बिम्सटेक के सदस्य देशों के नेताओं को आमंत्रित किया। लेकिन दूसरे देशों के साथ आर्थिक संबंध बनाने की कोई ठोस कार्य-नीति नहीं है। इस दिशा में भारत को गंभीरता से काम करना होगा।
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