मीडिया : उदारतावाद पर एक बहस
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया तो स्वभाव से ही अनुदार हैं। आज मीडिया ‘उदारतावाद’ के अवसान पर रो रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं। नये चुनाव परिणामों के बाद तो ‘उदारतावादियों’ को रोना ही था।
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शायद इसी रोने-धोने को लेकर एक कथित उदार अंग्रेजी खबर चैनल ने कई उदार/अनुदार चिंतकों से पूछा कि क्या उदारता के दिन लद गए हैं?
एक ‘उदारचेता’ ने कहा कि लिबरलों ने न सावरकर को पढ़ा है न गोलवलकर को। इसीलिए वे अनुदार हिंदुत्ववादियों से लोहा नहीं ले सकते और रही कसर इस चुनाव ने पूरी कर दी..एक खास समुदाय के विरुद्ध घृणा की राजनीति जारी है। ‘लिंच मॉब्स’ सक्रिय हैं। उदार विचार के लिए जगह नहीं बची है। एक समूचे समुदाय को डराके रखा जा रहा है।
एक उदारतावादी आत्मा बोली कि इन दिनों नेहरूवियन मॉडल गिर चुका है। इसीलिए ऐसा सोचा जा रहा है। अपने यहां के सेक्युलरिज्म की निर्मिति में ही दोष है। यह शाहबानो के केस के दौरान गड़बड़ाया। भाजपा अतिवादी रही है लेकिन पीएम ने ‘इन्क्लूजन’ की बात की है..। एक अनुदार आत्मा ने फरमाया कि कहंीं कोई घटना हो जाती है तो सीधे भाजपा और संघ पर आरोप लगा दिया जाता है जो कि ठीक नहीं। जहां हमारा शासन है वहां दंगे नहीं होते। हम किसी तरह की हिंसा को उचित नहीं मानते और अब जब प्रधानमंत्री ने कहा है कि ‘सबका विश्वास’ तो उस पर भी लोग शक कर रहे हैं..। ऐसी उठती-गिरती बहस के बीच एक कलाकर्मी बोले कि डर की बात सच है।
उसे अल्पसंख्यकों के दिलों में बिठाया गया है। उनको टारगेट किया जाता है। गुजरे जमाने की एक फिल्मी हस्ती ने फरमाया कि जितनी घटनाएं हुई हैं, बहुत मामूली हैं। सेक्युलरिज्म के कई मायने हैं। पश्चिम के सेक्युलरिज्म से अपना सेक्युलरिज्म अलग है। एक बोला यह ‘सर्वधर्म समभाव’ है तो एक अन्य अनुदारतावादी बोली कि सभी धर्म सम्माननीय हैं। एक अन्य उदार बोले कि ‘सेक्युलरिज्म’ को अपने को नये सिरे से खोजना और अपना ‘ऐलीटिज्म’ खत्म करना होगा। इसके बाद बोल चुकी उदारतावादी आत्मा ने फिर से कहा कि मुसलमानों को किसी पेटरनाइजेशन की जरूरत नहीं। ठीक है कि वो समाज चिंतित है लेकिन उसको किसी रक्षक की जरूरत नहीं। बहस के बीच उदारतावादी एंकर ने साफ बोला कि कांग्रेस एक ‘फ्यूडल’ पार्टी’ है। कई बार लिबरल भी अनुदार हो उठते हैं। वे कई बार शिकायत करते हैं कि आपने उस ‘अनुदार’ को अपनी बहस में क्यों बुलाया?
ऊपर के विचार विमर्श में ऐसी बहुत सी बातें आ गई हैं जो बताती हैं कि इन दिनों ‘सेक्युलरिज्म’ से लेकर ‘लिबरलिज्म’ तक के पुनराविष्कार की जरूरत है यानी इन शब्दों को नये सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। लेकिन यह ‘पुनराविष्कार’ करे कौन? ‘पुनराविष्कार’ के लिए जरूरी है कि ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘लिबरलिज्म’ के अमल के दौरान हुई और हो सकने वाली गलतियों को स्वीकार किया जाए और इस तरह पूरे ईमानदार तरीके से खुली ‘आत्मसमीक्षा’ की जाए। इसके लिए दूसरों की आलोचना सुननी पड़ेगी और अपनी कमियां स्वीकारनी होंगी। तब जाकर कहीं ‘पुनराविष्कार’ का दरवाजा खुल सकेगा। कहना न होगा कि ‘गहन आत्मसमीक्षा’ और ‘पुनराविष्कार’ के लिए पिछले पांच बरस कम नहीं थे लेकिन क्या किसी ने इस दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ाया?
हुआ सिर्फ इतना कि एक ‘कथित’ उदारचेता सांसद ने अंग्रेजी में एक किताब लिख डाली कि ‘मैं हिंदू क्यों हूं?’ और एक ‘कथित’ उदारमना ने ‘शंकराचार्य’ पर एक किताब लिख डाली और एक अन्य ‘कथित’ उदारतावादी चिंतक ने ‘हिंदू राष्ट्र’ की आलोचना करते हुए एक किताब लिख दी। कुछ ऐसे ही छिटपुट प्रयत्न और हुए होंगे लेकिन इतना ही हुआ। किसी भी उदारतावादी ने न ‘हिंदू धर्म’ और ‘हिंदुत्व’ के विचार के साथ कोई ‘एंगेजमेंट’ किया, न ही दार्शनिक और वैचारिक स्तर पर उसका मुकाबला किया। उसे चुनौतीविहीन रहने दिया। उदाहरण के लिए,तीन दिन पहले एक अमर्त्य सेन जैसे नोबेल बौद्धिक ने लेख लिखकर फरमाया कि मोदी सरकारी मशीनरी और दूरदर्शन की सहायता से जीते हैं यानी यह ‘षडय़ंत्र’ है, जीत नहीं है। ये महान विद्वान यह तक नहीं जानते कि भारत में अब सिर्फ दूरदर्शन नहीं है, बल्कि दर्जनों निजी खबर चैनल, करोड़ों फेसबुक और ट्विटर अकाउंट्स और करोड़ों व्हाट्सऐप समूह हैं, जिनमें सब दल सक्रिय हैं, और कि भाजपा ने भी जनहित के कुछ काम किए होंगे जिनके कारण उसे वोट मिला। इसे षडय़ंत्र कहना नब्बे करोड़ वोटरों का अपमान है।
‘उदार’ होना ‘स्वभाव’ की बात है, लेकिन इस मीडिया युग में कोई कैसे ‘उदार’ बना रह सकता है?
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