सामयिकी : न्याय जैसी योजनाओं का महत्त्व
पहले मोदी सरकार ने आने वाले चुनाव को ध्यान में रखते हुए अपने आखिरी बजट में किसान परिवारों के लिए हर साल 6 हजार रुपये का हस्तांतरण करने की योजना का ऐलान किया।
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इसके तहत करीब 12 करोड़ छोटे किसानों के खातों में यह राशि दी जानी थी। लेकिन, एक तो प्रस्तावित राशि बहुत कम थी। ऊपर से इस योजना के पीछे नीयत भी नेक न थी। हां! इसके जरिए चुनावी सीजन में अपने चहेतों के हाथ में कुछ नकदी पहुंचाए जाने की हद तक गंभीरता जरूर हो सकती है। अचरज नहीं कि मोदी ने खुद अपने चुनावी भाषणों में इस योजना का बखान करने से खुद को दूर ही रखा है। इसके बजाए भाजपा ने वोट बटोरने के लिए सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने की अपनी जानी-पहचानी रीति का ही सहारा लिया है। प्रज्ञा ठाकुर को उम्मीदवार बनाया जाना इसी का हिस्सा है।
चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में इससे कहीं ज्यादा महत्त्वाकांक्षी योजना पेश की है। इसे न्याय का नाम दिया गया है। इसका लक्ष्य, आय के लिहाज से सबसे निचले पायदान पर आने वाले, कुल आबादी में से चौथाई परिवारों को, 6,000 रुपये महीना देना है। लाभान्वित होने वाले परिवारों की संख्या करीब 5 करोड़ बैठेगी। इस योजना पर हर साल करीब 3.6 लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है, जबकि मोदी सरकार की योजना पर सिर्फ 72,000 करोड़ रुपये सालाना खर्च होने का ही अनुमान था। हालांकि, इस योजना के लिए वित्त व्यवस्था या इसके परिपालन के संबंध में अभी विवरण सामने नहीं आए हैं, फिर भी न्याय योजना कहीं ज्यादा गंभीर लगती है।
वैसे तो गरीबों को सहायता देने की किसी भी योजना का स्वागत किया जाना चाहिए। फिर भी, न्याय योजना के साथ दो स्वत:स्पष्ट समस्याएं जुड़ी हैं। पहली, यह नकदी हस्तांतरण योजना है। इसलिए मान भी लिया जाए कि नकदी हस्तांतरण पहले से चल रहे कल्याणकारी कार्यक्रमों की जगह नहीं ले रहे होंगे बल्कि वास्तव में इन कार्यक्रमों के पूरक की तरह काम कर रहे होंगे, तब भी यह योजना बुनियादी तौर पर इसी तरह काम करेगी कि थोड़ा सा पैसा देकर सरकार गरीबों के प्रति अपना दायित्व पूरा हो गया मान लेगी। इसलिए इस तरह के हालात में नकदी हस्तांतरण निजी क्षेत्र के ऐसी सेवाएं मुहैया कराने वालों की जेबें भरने के ही काम आएंगे। दूसरी समस्या यह है कि यह लक्षित योजना होगी। ऐसी योजना के साथ पात्रता के बावजूद कुछ लोगों के छूट जाने की समस्या जुड़ी रहती है। लक्षित योजना, व्यावहारिक माने में शासन की ओर से खैरात बांटे जाने का ही रूप ले लेती है। एक ओर दाता होता है, दूसरी ओर याचक। यह अपनी बुनियाद से ही अलोकतांत्रिक है। वास्तव में हर नागरिक का सार्वभौम अधिकार होना चाहिए कि शासन द्वारा उसे कुछ सेवाएं मुहैया कराई जाएं।
बहरहाल, ऐसी योजनाओं के प्रति अपने नजरिए की बात हम अगर एक तरफ रख दें, तब भी सवाल तो है ही कि अचानक ऐसे हस्तांतरणों की जरूरत क्यों पड़ गई? मोदी ने 2014 का चुनाव तो ‘विकास’ के नारे पर जीता था। उससे पहले भी हमेशा जीडीपी की वृद्धि दर की ही बात होती थी। भारत के एक ‘आर्थिक महाक्ति’ बनने की, ‘इंडिया शाइनिंग’ और इसी तरह की बातें होती थीं। गरीबों के पक्ष में हस्तांतरणों की बात तो शायद ही कभी सुनाई दी हो। यूपीए-प्रथम की सरकार जो महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना लाई थी, वह भी 2004 के चुनाव में प्रचार का कोई प्रमुख मुद्दा नहीं बनी थी।
दूसरे शब्दों में अभी हाल तक मानकर चला जाता रहा था कि जीडीपी में ऊंची वृद्धि दर लाई जा सकती है, और उससे खुद ब खुद सब को लाभ मिल जाएगा। साफ है कि अब मतदाताओं को इस सपने पर विश्वास नहीं रह गया है। अर्थ संक्षेप में यह कि नकदी हस्तांतरणों की योजनाएं नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट को ही दिखाती हैं। संकट यह है कि जनता का इससे विश्वास उठ गया है कि यह व्यवस्था उत्पादक शक्तियों का ऐसी तेज रफ्तार से विकास कर सकती है, जिसका लाभ सभी को मिलेगा। इसी सचाई का पता भाजपा के घोर सांप्रदायिक प्रचार से भी चलता है।
यह सबूत है कि ‘विकास’ का उसका पिछली बार का नारा अब जनता को खोखला लगने लगा है। जनता जान चुकी है कि ‘विकास’ के नारे से आज के हालात में, जब नवउदारवादी पूंजीवाद संकट में फंसा हुआ है उसको रत्तीभर राहत मिलने वाली नहीं। यह भी कह सकते हैं कि नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट ने देश में उसके प्रति प्रतिबद्ध पूंजीवादी राजनीतिक पार्टी को समर्थन जुटाने के लिए घोर सांप्रदायिकता का सहारा लेने के रास्ते पर भेजा है। संकट ने एक अन्य पूंजीवादी राजनीतिक पार्टी को, जो नवउदारवाद के ही प्रति वचनबद्ध तो है लेकिन मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्ष बनी रही है, इस रास्ते पर भेजा है कि नवउदारवादी यात्रा पथ में सुधार कर उसे ‘मानवीय चेहरा’ देने का वादा करे। जहां तक जरूरी संसाधनों का सवाल है, तो ऐसे हस्तांतरण व्यावहारिक हैं। ये सकल घरेलू उत्पाद के 2 फीसद से जरा सा ही ज्यादा बैठेंगे।
यह दूसरी बात है कि नवउदारवादी पूंजीवाद का तर्क ऐसे हस्तांतरणों के आड़े आता है। जीडीपी का 2 फीसद या तो पूंजीपतियों या कहीं सामान्यत: संपन्न तबकों पर कर लगाने के जरिए जुटाया जा सकता है (जाहिर है कि ऐसे हस्तांतरणों के लिए मेहनतकश जनता पर कर बढ़ाना तो गरीबों के बीच गरीबी के वितरण में ही बदलाव करने का काम करेगा न कि गरीबी दूर करने का) या फिर इसकी भरपाई राजकोषीय घाटा बढ़ाने के जरिए की जा सकती या इन दोनों ही उपायों के किसी योग के जरिए।
नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट के दौर में, जब कॉरपोरेट-वित्तीय अल्पतंत्र का रुझान ध्यान-बंटाऊ सांप्रदायिक और विभाजनकारी एजेंडा को आगे बढ़ाने का है, जनता के आर्थिक हालात पर कोई बल और हालात में सुधार लाने का कोई भी कार्यक्रम अपने आप में कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के खिलाफ जवाबी ताकत का काम करता है। जिस हद तक पूंजीवादी पार्टियां भी नवउदारवादी पूंजीवाद के तर्क और गरीबों की माली हालत में सुधार के ऐसे किसी कार्यक्रम के बीच के अंतर्विरोध से बेखबर गरीबों की हालत में ऐसे सुधार की पैरवी करती हैं प्रगतिशील ताकतों के लिए उतना ही अच्छा है।
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