मई दिवस : बदला फलक, बदले तकाजे
दुनिया के कई देशों में भूमंडलीकरण व्यापने के बावजूद मजदूर दिवस सरकारी छुट्टी का दिन है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में ऐसा नहीं है।
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और तो और, इस देश में ऐसी कोई परंपरा भी नहीं बन पाई है जिससे मजदूरों के संदेशों को दूसरी नहीं तो कम से कम उनकी अपनी जमातों तक पहुंचाया जा सके। क्या आश्चर्य कि लोक सभा चुनाव में भी उनकी वर्गीय उपस्थिति नहीं ही है। ऐसे दुर्दिन में मजदूर दिवस के सामान्य परिचय के लिए भी उन्नीसवीं शताब्दी में जाना होगा जब मजदूर अत्यंत अल्प और अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे।
1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने रॉबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठाई और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया तो नारा था-आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम। उसके संघर्ष के बावजूद 1847 तक मजदूरों की राह सिर्फ इतनी आसान हो पाई थी कि इंग्लैंड के महिला और बाल मजदूरों को अधिकतम दस घंटे काम की स्वीकृति मिल गई थी। ऑस्ट्रेलिया में 21 अप्रैल, 1856 को स्टोनमेंशन और मेलबर्न के आसपास के बिल्डिंग कर्मचारियों ने आठ घंटे काम की मांग को लेकर हड़ताल और मेलबर्न विश्वविद्यालय से पार्लियामेंट हाउस तक प्रदशर्न किया तो 1866 में जेनेवा कंवेंशन में इंटरनेशनल वर्किंगमेंस एसोसिएशन ने भी इस हेतु आवाज बुलंद की। लेकिन निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आई जब अमेरिका के शिकागो में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदशर्न किया और पुलिस, नेशनल गार्ड और घुड़सवार दस्ते उनके ऐसे बर्बर दमन पर उतर आए कि शिकागो की धरती रक्त से लाल हो गई। तभी से उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है।
बताना गैरजरूरी है कि इसके मूल में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स का वह दशर्न है, जिसमें श्रम को मानव समाज के निर्माण की मूल प्रेरणा और संचालक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, और उसके व्यक्तिगत के बजाय सामाजिक स्वरूप पर जोर दिया जाता है। चूंकि इस वक्त मजदूरों के साथ इस दशर्न का भी हाल बुरा है, उसके कुछ पैरोकारों द्वारा स्थितियों के आकलन में की गई गलतियों और कुछ आत्मावलोकन से परहेज के चलते। इसलिए देश में भूमंडलीकरण के चोले में आई नवउपनिवेशवादी नीतियों के ‘सफल’ पच्चीस से ज्यादा सालों बाद सयाने लोग कहते हैं कि अब जब पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के एकजुट प्रत्याक्रमण ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं कि मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गए, न वे श्रमिक रहे, न वह श्रमिक एकता और कथित रूप से कुछ ज्यादा ही कुशल श्रमिकों का एक हिस्सा अपनी निजी उपलब्धियों और महत्त्वाकांक्षाओं के फेर में पड़कर योग्यता और प्रतिस्पर्धा में नाम पर मजदूर आंदोलन के मूल्यों से गद्दारी पर आमादा है, इस दिवस का क्या औचित्य है?
कहां तो मार्क्स ने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा दिया और कहा था कि उनके पास खोने को सिर्फ बेड़ियां हैं, जबकि जीतने को सारी दुनिया और कहां उन्मत्त पूंजी दुनिया भर में उपलब्ध सस्ते श्रम के शोषण का नया इतिहास रचने पर आमादा है। विव्यापी नवऔपनिवेशिक व्यवस्था के आधार स्तंभों-विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच अनेक पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आने और लोकप्रिय होने का दावा करने वाली सरकारें भी उस उदारीकरण की राह पर चल पड़ी हैं, जो मुनाफाखोर कंपनियों को छोड़ हर किसी के लिए अनुदार है।
लेकिन कोई यह कहे कि इस एक पराजय से मजदूरों की एकता या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो गई है, तो उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। कारण, आज भी न वर्ग संघर्ष का इतिहास बदला है, न श्रम, उत्पादन और पूंजी का मूल संबंध। जाहिर है कि मजदूरों और उनके आंदोलनों, दोनों का भविष्य इस पर निर्भर होगा कि वे अपनी पुरानी गलतियों से सबक सीखेंगे या नहीं? भूमंडलीकरण के नाम पर बड़ी पूंजी के निर्बध प्रवाह के लिए राष्ट्रों व राज्यों की पुरानी सीमाओं और सत्ताओं के अतिक्रमणों का दौर चलाने के बाद श्रम को निर्बध होने से रोकने की लड़ाई वह ‘पुराने हथियारों’ से ही कैसे जीतेगा? युयुत्सावाद के प्रवर्तक कवि शलभ श्रीराम सिंह कह गए हैं कि युद्ध कभी भी कमजोर घोड़ों पर बैठकर नहीं जीते गए।
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