सामयिक : संकट में शीर्ष न्यायपालिका
आम चुनाव के शोर के बीच हमारी शीर्ष न्यायपालिका सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आए गंभीर संकट पर देश का ध्यान उतना नहीं है जितना होना चाहिए।
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मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर जबसे सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्व महिला कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए सभी न्यायाधीशों को पत्र लिखा तभी से हलचल मचा हुआ है। यह आरोप चल ही रहा था कि एक वकील उत्सव बैंस ने एक याचिका दायर कर आरोप पर विचार कर रही पीठ के सामने अपनी राय रखने की मांग की। बैंस ने कहा कि न्यायालय में ‘बेंच फिक्सिंग’ का खेल चल रहा है और इसके पीछे बड़ी कॉरपोरेट ताकतें हैं।
अगर बैंस की बात मानी जाए तो महिला के माध्यम से इन शक्तियों ने मुख्य न्यायाधीश को फंसाने की साजिश रची है। आरोप लगने के बाद ही मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा था कि न्यायपालिका गंभीर खतरे में है। गोगोई ने कहा कि कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से पहले यह उन्हें निशाना बनाने का एक बड़ा षड्यंत्र है। वास्तव में प्रश्न केवल मुख्य न्यायाधीश पर आरोप तक सीमित नहीं है। ये शीर्ष न्यायालय के सम्पूर्ण चरित्र, उसकी साख और विश्वसनीयता पर उठे प्रश्न हैं, जो उपयुक्त उत्तर के साथ ऐसी स्थितियां निर्मिंत करने की मांग करते हैं ताकि इसके भरोसे पर कोई संदेह न रहे। अगर मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका को गंभीर खतरे में मान रहे हैं और अहम मामलों की सुनवाई के पूर्व उनके सहित अन्य न्यायाधीशों को दबाव में लाने की साजिश की ओर संकेत कर रहे हैं तो इससे गंभीर स्थिति शीर्ष न्यायपालिका के लिए कुछ हो ही नहीं सकती।
बैंस के आरोप से इसकी एक हद तक पुष्टि भी होती है। अगर निहित स्वार्थी तत्व न्यायालय में अपने मामले की सुनवाई के लिए अनुकूल पीठ तक गठित करवाने का खेल रच रहे हैं तो साफ है कि हमारी न्यायपालिका गंभीर बीमारी से ग्रस्त है। महिला के आरोपों के बाद न्यायमूर्ति गोगोई ने स्वयं को भी उसकी विशेष सुनवाई में शामिल किया। इस पर वकीलों के संगठनों सहित अन्य अनेक संस्थाओं ने प्रश्न भी उठाए, लेकिन गोगोई का कहना था कि उन्होंने न्यायालय में बैठने का असामान्य और असाधारण कदम उठाया है क्योंकि चीजें बहुत आगे बढ़ चुकी हैं।..न्यायपालिका को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता। वैसे पीठ ने जो फैसला किया, उसमें मुख्य न्यायाधीश का नाम शामिल नहीं था। तत्काल महिला के आरोपों की आंतरिक जांच के लिए न्यायमूर्ति गोगोई के बाद दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीश एस. ए. बोबडे की अध्यक्षता में एक समिति गठित किया गया है। इसी तरह पीठ फिक्सिंग मामले की जांच के लिए सेवानिवृत न्यायमूर्ति ए. के. पटनायक समिति का गठन किया गया है। तो हमें इन दोनों समितियों की जांच की अंतिम रिपोर्ट की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस से लेकर जांच एजेंसियों के प्रमुखों को बुलाकर समितियों को पूरा सहयोग का निर्देश देने के बाद यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसका दायरा कितना विस्तृत हो गया है। बिना पुलिस एवं जांच एजेंसियों के ऐसे मामलों की तह तक पहुंचा भी नहीं जा सकता। संभव है आने वाले समय में अनेक लोग इसकी चपेट में आएं।
इन दोनों मामलों को साथ मिलाकर देखने से तस्वीर यही बनती है कि सर्वोच्च न्यायालय को भी भ्रष्ट और बेईमान तत्व परोक्ष रूप से अपनी गिरफ्त में लेने में सफल हो रहे हैं और ज्यादातर न्यायाधीशों तक को इसका पता भी नहीं है। आप हालात का अंदाजा इसी से लगाइए कि न्यायाधीशों की बैठक में तय हुआ कि संवेदनशील मामलों के फैसले आदि की टाइपिंग भी स्वयं की जाए क्योंकि पता नहीं कौन सहयोगी उसे बाहर लीक कर दे? पिछले दिनों एक बड़े उद्योगपति के मामले में फैसले को गलत टाइप करके मीडिया को दे दिया गया था। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई छिपा तथ्य नहीं है, किंतु सर्वोच्च न्यायालय को इससे मुक्त माना जाता था। यह मिथक भी टूटा है। बेईमान पूंजीशाहों से लेकर अनेक प्रकार के लॉबिस्ट, बिचौलिए, निहित स्वार्थी तत्वों का जाल इसके ईर्द-गिर्द भी फैल चुका है। जाहिर है, इसकी सम्पूर्ण सफाई अनिवार्य है। यह सवाल भी उठ रहा है कि आखिर मुख्य न्यायाधीश किन महत्त्वपूर्ण मुकदमों की बात कर रहे थे? राहुल गांधी द्वारा राफेल फैसले की पुनर्विचार याचिका स्वीकार करने के बाद दिए गए बयान पर आधारित मानहानि, नरेन्द्र मोदी की बायोपिक को जारी करने या न करने, जमीन अधिग्रहण और सूचना का अधिकार उनके ऑफिस पर लागू होने या नहीं जैसे मामलों पर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ को सुनवाई करनी थी। तो इनमें किनका स्वार्थ हो सकता है?
यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला का चरित्र भी संदिग्ध है। उस पर आरोप है कि उसने मुख्य न्यायाधीश से निकटता की बात करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समूह-डी में भर्ती कराने के नाम पर घूस लिये। नौकरी नहीं मिली तो पैसे मांगे गए। पैसे वापस करने की जगह उसे धमकाया गया। इसकी प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है। पता नहीं जांच के साथ और क्या-क्या आरोप सामने आ जाएं? हो सकता है कई मामलों के फैसले के लिए धन का लेन-देन किया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय के वकीलों की एसोसिएशन ने आरोप से निपटने के लिए मुख्य न्यायाधीश की ओर से अपनाई गई प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है। विमीन इन क्रिमिनल लॉ नाम की एक अन्य एसोसिएशन ने तो जांच पूरी होने तक मुख्य न्यायाधीश के कार्य न करने की मांग की है। पता नहीं इन मांगों और सवालों के पीछे क्या सोच काम कर रही है? अगर न्यायपालिका का शीर्ष स्तंभ ही भ्रष्टाचारियों, अपराधियों के विषैले सांपों के फनों से घिर रहा है तो देश का क्या होगा? हम सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली को लेकर अनेक प्रश्न उठा सकते हैं। आरोप के बाद मुख्य न्यायाधीश के रवैये या कई मामलों में उनकी टिप्पणियों की आलोचना कर सकते हैं, पर यह समय उसका नहीं है। यह संविधान का अभिभावक माने गए शीर्ष संस्था को संकटमुक्त करने और उसकी साख एवं विश्वसनीयता को संदेहों से बाहर निकालने का वृहत्तर मामला है।
विशेष सुनवाई में न्यायपीठ ने मीडिया से अनुरोध किया था कि वह जिम्मेदारी और सूझबूझ के साथ काम करे, सत्यता की पुष्टि किए बिना महिला की शिकायत को प्रकाशित न करे। पीठ ने कहा कि हम कोई न्यायिक आदेश पारित नहीं कर रहे हैं, मगर यह मीडिया पर छोड़ रहे हैं कि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदारी से काम करे। बावजूद मीडिया के उसी धड़े ने खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित किया, जो पहले चार न्यायाधीशों की पत्रकार वार्ता के बाद न्यायपालिका में सुधार का झंडा उठाए हुए था या जो राफेल मामले पर शीर्ष न्यायालय के फैसले पर प्रश्न उठा रहा था। यह दुर्भाग्यपूर्ण रवैया है।
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