मुद्दा : इसलिए जरूरी हैं ऐसे नेता
बेगूसराय के चुनावी रण का निर्णायक क्षण आ चुका है। मतदाताओं को आज कन्हैया बनाम गिरिराज सिंह बनाम तनवीर हसन बनाम अन्य में से किसी एक को चुनना है।
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चुनाव में खासी दिलचस्पी दिखाने पर किसी ने चुटकी ली-बहुत दिनों बाद वामपंथियों को एक चेहरा मिला है-इसीलिए खुशी से कूद रहे हैं। बेगूसराय का चुनाव किसी भी दूसरे जिले के चुनाव से क्यों अलग है? सत्ता पक्ष और विपक्ष में कांटे की टक्कर तो दूसरी जगहों पर भी है। ऐसे में कन्हैया पर सारे दांव लगाकर आप क्यों बैठना चाहते हैं? कन्हैया अच्छा वक्ता है। उसके पीछे खास विचारधारा है। क्या सिर्फ इसलिए हम यह कह सकते हैं कि कन्हैया को जीतना चाहिए।
कन्हैया सिर्फ वामपंथ के भविष्य का चेहरा नहीं है। इसी वजह से उसके पक्ष में वे तमाम लोग प्रचार कर रहे थे, जिनका वामपंथी पार्टयिों से कोई लेना-देना नहीं है। एक्टिविस्ट योगेंद्र यादव से लेकर एक्टर प्रकाश राज तक। लेखक जावेद अख्तर से लेकर स्टैंड अप कॉमेडियन कुणाल कामरा तक। चूंकि उसमें उन्हें ऐसा युवा नजर आता है, जोकि यथास्थितिवाद पर प्रश्न करता है। ऐसे प्रश्न जो आपको परेशानी में डाल देते हैं-सत्ता की चूलें हिलाना जानते हैं। वह जब बोलता है तो श्रोता को सम्मोहित तो करता है, लेकिन उसकी सोचने-समझने की क्षमता को वह कुंद नहीं करता। उसे और सोचने पर मजबूर करता है। यह सोचने पर कि मंदिर-मस्जिद और हिंदू-मुसलमान के बजाय क्या रोटी-कपड़ा और मकान असल मुद्दे नहीं। राष्ट्रवाद क्या राष्ट्र के लोगों के बिना कायम किया जा सकता है? क्या हमें सचमुच तमाम असहिष्णुताओं से आजादी नहीं चाहिए? कन्हैया जैसे सवाल करने वाले कई नेता आज दुनिया के तमाम देशों में मौजूद हैं। यह इत्तेफाक भी नहीं है कि पूरी दुनिया में प्रगतिशील चेहरे वापस लौट रहे हैं।
अमेरिका में 29 साल की सोशलिस्ट एलेक्जेंड्रिया अकासियो कॉरटेज से रिपब्लिकन्स घबराए हैं। पूंजीवाद को अपूरणीय बताने वाली एलेक्जेंड्रिया जब ग्रीन न्यू डील की बात करती हैं तो जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक असर के साथ-साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य की भी बात होती है। वह ट्यूशन फ्री कॉलेज और ट्रेड स्कूलों की बात करती हैं, एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों की वकालत करती हैं और सभी नागरिकों को सरकारी स्वास्थ्य बीमा का समर्थन करती हैं। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के जेरेमी कॉरबिन भी लगातार प्रासंगिक होते जा रहे हैं। समाज में अमीर और गरीब के विभाजन को ब्रेक्सिट से बड़ी समस्या बताते हैं। उनका महत्त्व इसलिए है क्योंकि वह लगातार सभी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा की बात कर रहे हैं। मुक्त बाजार का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि इसमें मुनाफे पर सारा दावा पूंजीपतियों का ही होता है। वह निजीकरण नहीं, रेलवे में सार्वजनिक स्वामित्व की वकालत करते हैं। यह प्रगतिशील विचारधारा की तरफ लोगों का बढ़ता आग्रह ही है कि मैक्सिको में पिछले साल वामपंथी लोपेज ओबराडोर उर्फ एम्लोको राष्ट्रपति चुना जाता है। दरअसल, जब पुराने राजनीतिक दल उन्हीं नारों और नीतियों को नये पैकेज के साथ परोसते हैं तो मतदाता का भरोसा भी उनसे टूटता है। भले ही वह पूंजीवाद के संकट को न समझता हो। मार्क्स की वर्किंग डे की अवधारणा को न जानता हो। लेकिन इतना जरूर समझता है कि कॉरपोरेट जगत को उससे 12 घंटे काम नहीं करवाना चाहिए। जैसा कि मार्क्स का भी कहना था कि पूंजीवाद खुद अपने विध्वंस के बीज बोएगा। वह बीज बोया जा चुका है, अब कोंपले फूट रही हैं। अलेक्जेंड्रिया, एम्लो, कन्हैया उसी कोंपल का नाम हैं। अमेरिकी चिंतक नैन्सी फ्रेजर जिसे ‘प्रगतिशील नव उदारवादी’ सरकारें कहती हैं, उनके संकट ने फासीवादियों को मुख्यधारा में लाने का काम किया है। उसकी नीतियां सामाजिक रूप से प्रगतिशीलता की बात करती हैं, लेकिन आर्थिक रूप से प्रतिगामी होती हैं।
उसकी मुक्त बाजार और वित्तीय बाजार के विनियमन का विरोध करने वाली नीतियों का फायदा निवेशकों, बैंकों, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और अंतत: धनाढ्य वर्ग को होता है। नुकसान होता है, सबसे अधिक वंचित समुदायों को। इसके परिणामस्वरूप जो राजनैतिक शून्य पैदा हुआ है, उसको भरने का काम फासीवादी ताकतों ने किया है। ब्रेक्जिट, इटली में फाइव स्टार मूवमेंट, ट्रंप और भारत में भाजपा, इसकी मिसाल हैं। लेकिन फासीवाद या अन्य दक्षिणपंथी विचारधाराएं आम लोगों का ध्यान भटकाने का काम करती है। भारत में राष्ट्रभक्ति का झुनझुना पकड़ा देती है। कन्हैया जैसे नेता इन्हीं मुददों को दोबारा मंच पर लाते हैं। वे जानते हैं कि फासीवाद को हराने के लिए पूंजीवाद को हराना भी जरूरी है। ऐसा उनके जैसे प्रगतिशील लोग ही कर सकते हैं। कन्हैया का यही औचित्य है। इसीलिए उनके जैसे नेताओं का होना बहुत जरूरी है।
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