पुनरावलोकन : उन्मादी समाज और हम
मौजूदा समाज ‘उन्मत्त अवस्था’ में है, राजनीति और मीडिया की भाषा में इसे ‘उन्माद’ कहते हैं। यह वही अवस्था है जैसी एक जमाने में आधुनिकता के आने साथ देखी गई थी, उस समय भी इसी तरह का ‘उन्माद’ देखा गया था।
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स्वातंत्रयोत्तर भारत में राजनीति में उन्माद का क्षण शुरू होता है आपातकाल के समापन के साथ, उसी दौर में उन्माद का बीजवपन हुआ, आरक्षण आंदोलन ने इसका शैशव देखा, राम मन्दिर ने तरुणाई और मोदी के पीएम बनने के साथ उन्माद के नये क्षितिज नजर आ रहे हैं। इसके पहले विभिन्न क्षेत्रीय आंदोलनों के दौरान महीने दो महीने उन्माद रहा, लेकिन मोदी सरकार के गठन के बाद इसे पांच साल हो गए, यह अब तक का उन्माद का सबसे लंबा दौर है।
राममंदिर आंदोलन की विशेषता थी कि उसने उन्माद को जीवन शैली के रूपों के साथ जोड़कर फिनोमिना बना दिया। उन्माद को ही अभिव्यक्ति कहा गया। जो प्रस्तुतियां यांअभिव्यक्ति के रूप थे, उनको उसने अप्रासंगिक बना दिया। आजादी के दौर में भी हमने उन्माद देखा था लेकिन वह रीयल उन्माद था लेकिन आपातकाल के बाद से जिस उन्माद को विभिन्न क्षेत्रों में हमने देखा है, वह वास्तविकता से मेल नहीं खाता। इसी प्रसंग में यह सवाल उठता है कि हम समाज, राजनीति आदि की समस्याओं को उन्माद के नजरिए से देखें या यथार्थवादी नजरिए से देखें? सवाल यह भी है उन्माद का युग कब खत्म होगा?
अनेक लोग हैं, जो उन्माद के जरिए ही विकास, सांस्कृतिक विकास, राजनीतिक विकास आदि देख रहे हैं। सच यह हैंउन्माद के जरिए विकास नहीं कर सकते बल्कि शून्य में समाते जा रहे हैं। इसके कारण विकास, विवेक, आलोचना, प्रति-आलोचना आदि सब संकट में हैं। वस्तुओं, प्रतीक, संदेश, विचारधाराएं और संतोष के उत्पादन और पुनर्त्पादन के हर क्षेत्र में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्माद के कारण हम इस गलतफहमी में हैं कि सारा समाज एक ही दिशा में जा रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि हम शून्य में समाते जा रहे हैं। गहरी दलदल में धंसते जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि मुक्ति के जितने भी लक्ष्य थे उनको हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं। हर क्षेत्र में परिणाम हासिल करने के चक्कर में हमंउन्माद की मदद ले रहे हैं। उन्माद को राज्यजनित कल्पनालोक के फ्रेम में निर्मिंत करने में लगे हैं। इस क्रम में आशाएं नहीं बची हैं, कोई नये आदर्श नहीं हैं। सब कुछंहाइपर प्राप्ति पर निर्भर है। इस समय हमारे पास जितने भी आदर्श, फैंटेसी, सपने, इमेज आदि हैं, वे सब नकल हैं। इनके कारण अपरिहार्य भेदों के पुनर्त्पादन से घिर गए हैं।
यह सच है कि मुक्ति मिल रही है। सच में मुक्ति घटित हो रही है, लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह हम सोचते हैं। हर स्तर पर मुक्ति घटित हो रही है, मुक्ति अंतरिक्ष के जरिए आ रही है। शुद्ध सर्कुलेशन के जरिए आ रही है। इसके लाभ बहुत कम हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि मुक्ति इतनी तेज और चक्राकार विजनयुक्त नेटवर्क के साथ आ रही है कि उससे बचना असंभव है। हर चीज अनिश्चितता के सिद्धांत से निर्धारित हो रही है।
अब कोई चीज अदृश्य नहीं होगी, यहां तक कि भगवान भी अदृश्य नहीं होगा। हम ऐसे मुहाने पर पहुंच गए हैं, जहां सम्प्रेषण के विस्तार ने हर चीज को चरम पर पहुंचा दिया है। यहां चीजें चरम पर हैं, या पारदर्शी हैं। यह सब कुछ घटित हुआ संक्रामक रूप में नकल करने के कारण। अब कोई चीज सत्य रूप में नजर ही नहीं आती। चेतना के अंतहीन रूपों का पुनर्नवीकरण हो रहा है, नकल की नकल हो रही है। हर तरह की व्यवस्था अपने केंद्र से उखड़ चुकी है। अब तर्क का कोई मूल्य नहीं है, और न ही समानता का ही कोई मूल्य बचा है। सभी व्यवस्थाएं अ-केंद्रित होकर एक दूसरे के साथ रहने के लिए अभिशप्त हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि सिस्टम अपनी क्षमता के बाहर जाकर काम कर रहा है, विस्फोट कर रहा है। वह अपने ही तकरे का अतिक्रमण कर रहा है। इससे अर्थहीनता पैदा हो रही है। सत्ता की ताकत में इजाफा हुआ है। शानदार संभावनाएं पैदा हुई हैं, लेकिन दूसरी ओर मानवीय सभ्यता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मूल्य खतरे में पड़ गए हैं। अब कोई भी चीज यथार्थ रूप में व्यंजित या अभिव्यक्त नहीं होती। न तो कोई तर्क नजर आता है न ही कोई समानता नजर आती है। न ही मूल्यों के स्तर पर कोई क्रांति ही नजर आती है। केंद्र और हाशिए बने हुए हैं, लेकिन व्यवस्था की हर चीज अ-केंद्रित हो गई है। आज स्थिति यह है कि व्यवस्था अपनी सीमाओं के बाहर ले जाकर विस्फोट कर रही है।
आज वस्तु, प्रतीक, एक्शन अपने विचारों, अवधारणाओं, मर्म,मूल्यों, संदर्भ, उदय और लक्ष्य आदि से मुक्त हैं। यह आत्म-उत्पादन की अंतहीन प्रक्रिया है। चीजें रहेंगी, वे तब तक सक्रिय रहेंगी जब तक विचार का अंत नहीं होता। वह अपनी अंतर्वस्तु से पूरी तरह भेद पैदा कर लेता है। ऐसी अवस्था में चीजें ज्यादा बेहतर ढंग से सक्रिय रहती हैं। यहां तक कि प्रगति के विचार के भी लुप्त हो जाने की संभावनाएं हैं। संपदा का विचार भी अदृश्य है, लेकिन तेज गति से उत्पादन जारी है। वे अपने लक्ष्यों के साथ भेदों का विस्तार करते हुए यह काम कर रहे हैं। मसलन, कामुकता को ही लें, पहले कामुकता को कामुक व्यक्ति से जोड़ा गया, बाद में इस क्रम में हम प्राचीन अ-कामुक अवस्था की दिशा में बढ़ गए। अब बच्चा पैदा करने के लिए किसी स्त्री से सेक्स करने की जरूरत नहीं है। बिना सेक्स किए बच्चा प्राप्त कर सकते हैं। यह वस्तुत: अ-कामुक अवस्था है। आज मशीन, क्लोन, शरीर के अंगों के बदलने आदि को इस दिशा में मोड़ दिया गया है।
सेक्स क्रांति आजकल सबसे प्रिय पदबंध है, लेकिन हकीकत क्या है? वे नारा दे रहे हैं अधिक कामुकता, कम बच्चे, इन दिनों उलटी गंगा बह रही है कम सेक्स,ज्यादा बच्चे। पहले शरीर को आत्मा का प्रतीक माना जाता था, इन दिनों सेक्स के रूपक के तौर पर लिया जाता है। बल्कि यह कहें तो सही होगा कि इन दिनों किसी भी चीज का रूपक नहीं बिकता। यह ‘ट्रांस’ या ‘परा’ का युग है, यानी ‘ट्रांससैक्सुअलिटी’ यानी सेक्स के परे। इस ‘परा’ से आजकल प्रत्येक विषय प्रभावित है। इकोनॉमी को ट्रांस इकोनामी, सौंदर्य को परासौंदर्य कह रहे हैं, इससे सबसे बड़ा नुकसान निर्धारक तत्व का हुआ है। अब हर चीज का ‘परा’ और सार्वभौम प्रक्रिया में रूपान्तरण हो रहा है।
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