बतंगड़ बेतुक : बलिहारी जनता तू चुनाव हारी

Last Updated 09 Dec 2018 01:30:28 AM IST

उत्तर-मध्य भारत से लेकर दक्षिण के तेलंगाना तक के चुनावी प्रचार प्रेत मतदायी अनुष्ठान के यथाविधि संपन्न हो जाने के बाद फिलवक्त थम गये हैं।


बतंगड़ बेतुक : बलिहारी जनता तू चुनाव हारी

अब आप कह सकते हैं कि जुबानें जिस तरह गंद उगल रही थीं, झूठ और लफ्फाजी पर जिस तरह सच का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा था, जिस तरह कहीं हिंदू-मुसलमान और कहीं हिंदू-हिंदू खेला जा रहा था, जिस तरह राजनीतिक वानर-भालू हुमक-हुमककर श्रीराम के नये-नये रूप-विरूप गढ़ रहे थे, जिस तरह भाषायी  शुचिताओं का चीरहरण हो रहा था, और जिस तरह व्यावहारिक मर्यादाओं को सरेआम नंगा किया जा रहा था, चुनाव के नाम पर जो घृणोन्माद पैदा किया जा रहा था, वह आप जैसे धीर-गंभीर की सहनशक्ति से परे था। घनघोर प्रतिस्पर्धा हो रही थी कि कोई भी आयं-बायं, अंट-शंट बकने में किसी से पीछे न छूट जाए। आप मान सकते हैं कि युद्धरत सांड़ों के बीच मीडिया हर उस बयान और हर उस घटना को लाल कपड़े की तरह लहरा रहा था जो उत्तेजित करती हो, दिमाग के दरवाजे बंद करती हो और एक दूसरे की खाल खुरचने के लिए सींगों को पैना करती हो। आप सोच सकते हैं कि प्रचार की गाड़ी के पहिए तो थोड़ी देर के लिए थमे, लेकिन अपने पीछे इतना जहरीला धुंआ छोड़ गए, वातावरण को इतना प्रदूषित कर गए कि सांस लेने में स्वच्छ हवाओं की चीखें निकल जाएं। आप पूछ सकते हैं कि समूचे चुनाव अभियान में दीन-हीन जनता के दुख-दर्द कहां थे, रोजमर्रा की समस्याएं कहां थीं? आपके इन सवालों के जवाब या तो अली जाने या फिर बजरंग बली। और आपका सोचना-मानना-लगना सब कूड़ेदान की तरफ दरकिनार, वास्तविकता है कि यह हमारे चुनावी लोकतंत्र की एक और सफल छलांग थी, जो चुनाव प्रचार के उच्च मानक स्थापित करके पूरी हुई।

अब जब चुनाव हो चुके हैं, तो महान नेताओं की महान वाणियां सुन लीजिए, लगता ही नहीं इनमें से कोई भी हारेगा। जिसकी जमानत जब्त होनी है, विजयनाद कर रहा है, और जिसे जनता जुतिया चुकी है, राजगद्दी पर दावा ठोक रहा है। जिसकी पहले सरकार थी, विशाल बहुमत से दुबारा सरकार बनाने की बात कह रहा है, और जिसे वर्षो से सत्ता के दरवाजे देखने को नहीं मिले वह भी दावेदारी पेश कर रहा है। एग्जिट पोल जिसे हारा हुआ बता रहा है, एग्जिट पोल को गलत ठहरा रहा है। एग्जिट पोल जिसे जीता बता रहा है, अपनी पीठ थपथपा रहा है।
जब तक चुनाव परिणाम नहीं आ जाते, मीडिया दावों और प्रतिदावों की कुश्तियां करवाता रहेगा, ‘सभ्य’ और ‘सुसंस्कृत’ वक्ताओं-प्रवक्ताओं की चोंचें लड़वाता रहेगा, जुबानों की बेलगाम जूतमपैजार करवाता रहेगा और जिनसे ये जूतमपैजार ज्यादा मारक और दर्शक-लुभावनी बनती हो वे जहरबुझी चुनिंदा बाइटें और चुनिंदा उत्तेजक फुटेज भी दिखाता रहेगा। मीडिया के उछल बच्चे टीआरपी की टोपी पहनकर ले मार-दे मार करते रहेंगे। वे कसम खाकर बैठते हैं कि न किसी सही-समझदार, शांत-सरल व्यक्ति को अखाड़े में आमंत्रित करेंगे और न किसी भी बहस-विमर्श को तार्किक तरीके से आगे बढ़ने देंगे। भले ही लोकतंत्र के खंबे चरमरा रहे हों लेकिन वे चौथा खंबा होने के अपने मलखंब पर इसी तरह ऊपर-नीचे होते रहेंगे। दर्शक अपनी रुचि-अरुचि, लगाव-विलगाव, जात-कुजात, भक्ति-विरक्ति, धर्म-मजहब के पूर्वाग्रह लेकर इनका आनंद लेता रहेगा। जिसमें उसकी विनयावनत आस्था होगी उस पर चहचहाते हुए ताली पीटेगा और जिसमें अनास्था होगी उस पर खोखियाएगा और उसे गुस्से से गरियाएगा। यह देखकर आपकी इच्छा बाल नोंचने की हो तो बेझिझक नोंचते रहिए। उमड़ ज्यादा हो तो ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप पर अपने दो-चार भड़ासिया कमेंट डालते रहिए। लेकिन इससे कथित मुख्यधारा के मीडिया के चाल-चरित्र में न कोई बदलाव आएगा और न हमारे महान नेताओं के चाल-चरित्र में।
आपके जहन में कुछ दूसरी प्रजाति के बेसिर-पैर के सवाल भी कुलबुला सकते हैं कि जहां भाजपा सत्ता में है, वहां कांग्रेस सत्ता में आ गई तो जनता पर कौन-सा दुख का पहाड़ टूट पड़ेगा या कौन-सा सुख का समुद्र उमड़ पड़ेगा। पहले वाले भी संविधान की शपथ लेकर आए थे, नये वाले भी संविधान की शपथ लेकर आएंगे। पहले वाले भी जनता की दुहाई से जनता का वोट लेकर आए थे, नये वाले भी जनता की दुहाई के साथ जनता का वोट लेकर सत्ता में आएंगे। हां, भाजपा और उसके भक्त-देशभक्त शोकाकुल हो जाएंगे और कांग्रेस तथा उसके धर्मनिरपेक्ष नवहिंदू हष्रातिरेक में डूब जाएंगे। एक तरफ हार का ठीकरा फोड़ने के लिए सर तलाशे जाएंगे तो दूसरी तरफ जीत का श्रेय लेने के लिए सीने फुलाए जाएंगे।
बहुत से पुराने खेमे उखड़ जाएंगे, बहुत से नये तंबू सज जाएंगे। नये तंबुओं में नये चेहरे नजर आएंगे और वे अपनी पुरानी रीति-नीति के अनुसार अपनी नई दुकानदारी सजाएंगे। बेदखल हुए, उखड़े हुए दलदलिए राजनीतिबाज लोकतंत्र के स्थापित पुराने मानकों का अनुपालन करते हुए मातम के मोड से निकल कर नई गोलबंदियां सजाएंगे। अब तक जो काम वे कर रहे थे, अब ये करेंगे। सरकारी निकम्मे-नाकारापन और असफलता के आरोप पहले वे लगा रहे थे, अब ये लगाएंगे। किसानों, बेरोजगारों, व्यापारियों का रोना पहले वे रो रहे थे, अब ये रोएंगे। रही जनता की बात तो वह अब भी वहीं रहेगी जहां पहले थी, इस और उसके बीच झूलती हुई, निरंतर मूढ़ बनती हुई, लगातार मूर्ख बनाई जाती हुई। जनता हर चुनाव हार रही है।

विभांशु दिव्याल


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