सरोकार : जकड़न के जिम्मेदार ये जाति और वर्ण
ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पदबंध दो शब्दों से मिलकर बना है। पहला ब्राह्मणवाद और दूसरा पितृसत्ता। दोनों कोई नए शब्द नहीं है। न अलग-अलग इनका इस्तेमाल नया है।
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हां एक साथ इनका इस्तेमाल कुछ लोगों को नया लग सकता है। ब्राह्मणवाद शब्द का इस्तेमाल दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत दलित-बहुजन आंदोलन द्वारा व्यापक पैमाने पर होता रहा है। ब्राह्मणवाद के पर्याय के रूप में मनुवाद का भी इस्तेमाल किया जाता है।
ब्राह्मणवाद का अर्थ है वर्ण-जाति आधारित वह व्यवस्था जिसमें वर्ण-जाति के आधार पर ऊंच-नीच का एक पूरा पिरामिड है, जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण हैं और नीचे अतिशूद्र या ‘अछूत’ हैं, जिन्हें आज दलित कहते हैं। चूंकि इस व्यवस्था की रचना में ब्राह्मणों की केंद्रीय भूमिका थी और उनके द्वारा रचे गए ग्रंथों ने इस मुकम्मिल शक्ल और मान्यता प्रदान किया था, जिसके चलते इसे ब्राह्मणवाद कहा जाता है। चूंकि मनुस्मृति में वर्ण-जाति व्यवस्था के नियमों और विभिन्न वर्णो के अधिकारों एवं कर्तव्यों को सबसे व्यापक, व्यवस्थित और आक्रामक तरीके से प्रस्तुत किया गया है, जिसके चलते इस मनुवादी व्यवस्था भी कहा जाता है। यहां एक बात बहुत ही स्पष्ट तरीके से समझ लेनी चाहिए कि ब्राह्मणवादी-मनुवादी व्यवस्था पदबंध के सबसे बड़े सिद्धांतकार डॉ. आंबेडकर साफ शब्दों में कहते हैं कि ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन के निशाने पर कोई जाति विशेष या व्यक्ति विशेष नहीं है, बल्कि पूरी ब्राह्मणवादी व्यवस्था है, जिसके जहर का शिकार पूरा भारतीय समाज है और इसने हिंदुओं को विशेष तौर मानसिक रूप में बीमार बना दिया है।
अब पितृसत्ता शब्द को लेते हैं। यह एक विव्यापी स्वीकृत अवधारणा है। पितृसत्ता की केंद्रीय विचारधारा यह है कि पुरुष स्त्रियों से अधिक श्रेष्ठ है, तथा महिलाओं पर पुरुषों का नियंत्रण होना चाहिए। इसमें सारत: महिलाओं को पुरुषों की सम्पत्ति के रूप में देखा जाता है। पितृसत्ता में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है, उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष उसके प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण। इसके लिए उसकी यौनिकता पर नियंत्रण जरूरी है। स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के अलावा उसकी उत्पादकता और श्रम शक्ति पर भी नियंत्रण पुरुष का हो जाता है। एंगेल्स ने इस पूरी प्रक्रिया के संदर्भ में कहा, ‘यह स्त्री की विश्व स्तर की ऐतिहासिक हार थी। पुरुष घर का स्वामी बन गया, स्त्री महज पुरुष की इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम भर रह गई।’
भारत की पितृसत्ता विव्यापी पितृसत्ता के सामान्य लक्षणों को अपने में समेटे हुए भी खास तरह की पितृसत्ता है, जिसका वर्ण-जाति व्यवस्था से अटूट संबंध है यानी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को अलग ही नहीं किया जा सकता है, दोनों एक दूसरे पर टिके हुए हैं। इसका केंद्र सजातीय विवाह है। जाति को तभी बनाए रखा जा सकता है और उसकी शुद्धता की गांरटी दी जा सकती थी, जब विभिन्न जातियों की स्त्रियों का विवाह उन्हीं जातियों के भीतर हो। अर्थात स्त्री यौनिकता और प्रजनन पर न केवल पति, बल्कि पूरी जाति का पूर्ण नियंत्रण कायम रखा जाए। इसके लिए यह जरूरी था कि हिंदू अपनी-अपनी जाति की स्त्रियों के जीवन पर पूर्ण नियंत्रण कायम करें और इस नियंत्रण को पवित्र कर्तव्य माना जाए।
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