फ्रांस : वैसी आग यहां भी जलती!
भारत से फ्रांस को देखते हैं तो पेरिस की रंगीन शामें, वहां का फैशन और सांस्कृतिक विस्तार इसे एक बेहद अमीर और विकसित मुल्क के रूप में पेश करता है।
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लेकिन यही फ्रांस एक पखवाड़े से ज्यादा वक्त तक जलता रहा। वह भी सिर्फ इसलिए कि वहां लोग पेट्रोल-डीजल के दामों में की गई बढ़ोतरी से परेशान हो गए थे। वहां पेट्रोल के दाम पिछले 12 महीनों में 23 फीसद बढ़े हैं। एक अमीर मुल्क के नागरिकों को ये दाम चुकाने में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए, इसके बावजूद कुल मिलाकर 10 लाख लोग सड़कों पर उतर आए। पहली बार 17 नवम्बर को देशव्यापी प्रदर्शन हुए थे, तब इसमें करीब 3 लाख लोग ‘येलो वेस्ट’ या ‘येलो जैकेट मूवमेंट’ के नारे के तहत प्रदर्शन करने आए थे। सोशल मीडिया पर हुई एक पहल के बाद यह आंदोलन फ्रांस के आर्थिक रूप से ऐसे कमजोर लोगों की आवाज बन गया, जिनके पास कारें तो हैं पर उन्हें चलाने के लिए महंगा होता पेट्रोल-डीजल खरीदना उनके बूते से बाहर हो रहा है। हारकर राष्ट्रपति मैक्रों ने तेल के दामों में हाइड्रकार्बन टैक्स के रूप में की गई मूल्यवृद्धि को वापस ले लिया, जिसका तात्कालिक मकसद देश में इलेक्ट्रिक कारों को बढ़ावा देना था।
भारत में बीते एक दशक में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें कई गुना ज्यादा बढ़ी हैं, लेकिन न तो हमारे देश में जनता फ्रांस जैसा आंदोलन करने को उतारू हुई है और न ही किसी राजनीतिक दल ने इसे एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया है। आंकड़ों के मुताबिक मई 2004 में देश में पेट्रोल की औसत कीमत 33.71 रु पये प्रति लीटर थी, जो 16 मई 2014 को एनडीए सरकार के सत्ता में आने के समय 71.41 रु पये प्रति लीटर पहुंच चुकी थी। इन साढ़े चार सालों में मोदी सरकार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें 13 फीसद उछल गई हैं। 10 साल में ये कीमतें 96 फीसद बढ़ गई हैं। चूंकि पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें हर चीज की महंगाई बढ़ाती हैं। अत: कह सकते हैं कि भारत का मध्यवर्ग फ्रांस की तुलना में कई गुना ज्यादा महंगाई झेल रहा है।
प्रति व्यक्ति आय के मामले में फ्रांस हमारे देश ही नहीं, कई एशियाई मुल्कों से काफी बेहतर स्थिति में है। इस पर भी अगर वहां ऐसा विराट आंदोलन हो सकता है तो मानना चाहिए कि कम-से-कम भारत में ही इस मामले को लेकर मध्यवर्ग के भीतर सुलग रही चिंगारी किसी रोज ज्वालामुखी का रूप ले सकती है। फ्रांस में हुए ताजा आंदोलन के मूल कारणों की टोह लेंगे तो पता चलेगा कि क्यों भारत में भी ऐसे आंदोलन की जमीन तैयार हो रही है। सबसे अहम यह है कि फ्रांस के येलो वेस्ट आंदोलन में शामिल हुआ मध्यवर्गीय तबका वह है जो शहरों में महंगी होती रिहाइश के कारण नजदीकी उपनगरों में विस्थापित हुआ है। इस वर्ग के लोगों को पेरिस या रोजगार देने वाले अन्य शहरों में आने-जाने के लिए अपनी कारों पर निर्भर होना पड़ता है। भारतीय मुद्दों में तुलना करने से पता चलता है कि वहां के इस तबके की आय करीब 15-30 हजार रु पये महीना होती है। आय का बड़ा हिस्सा पेट्रोल-डीजल खरीदने में फूंक देने के बाद महीने के आखिर में इस तबके की जेब बिल्कुल खाली हो जाती है। इस तबके की हैसियत इतनी भी नहीं है कि यह सरकार द्वारा प्रोत्साहित की जा रही इलेक्ट्रिक कारें खरीद सके।
हमारी सरकार भी बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर धीरे-धीरे पेट्रोल-डीजल की कारों को हतोत्साहित करने और इलेक्ट्रिक कारों को प्रोत्साहन देने की नीति पर चल रही है। देश का विशाल मध्यवर्ग ऐसा है, जो दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों की महंगी रिहाइश के चलते नये विकसित हुए इलाकों में रहने को मजबूर हुआ है। वहां से आने-जाने के साधन ज्यादा विकसित नहीं हैं। कुछ जगहों को मेट्रो से जोड़ा गया है, लेकिन आए दिन मेट्रो रेल में पैदा होने वाली खराबियों ने लोगों को अपनी कार लाने को मजबूर किया है।
यह देखते हुए कि फ्रांस में कुल जनसंख्या के 6.1 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं (2001 के आंकड़े) हैं, जबकि भारत में 2011 के आंकड़ों के अनुसार अभी भी 14 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं, अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां हालात कितने विस्फोटक हो सकते हैं। हमारी सरकार को इसका शुक्र मनाना चाहिए कि पेट्रोल-डीजल की महंगाई से आजिज आकर देश की जनता ने कोई अतिवादी कदम अभी तक नहीं उठाया है। फ्रांस के आंदोलन के मद्देनजर हमारे राजनीतिक दलों को समझ लेना होगा कि जनता लंबे समय तक उसके आश्वासनों-घोषणाओं पर भरोसा किए नहीं बैठ सकती। सरकारों ने अपने फायदे छोड़कर अगर पेट्रोल-डीजल को जीएसटी से न जोड़ा तो क्या पता भीतर ही भीतर खदबदाती फ्रांसीसी क्रांति कब हमारे देश में फूट पड़े?
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