दृष्टिकोण : सीरत न बदले तो सूरत ही बदल दो

Last Updated 02 Dec 2018 07:27:49 AM IST

राजधानी दिल्ली की सड़कों पर अपने दो दिन के डेरे में देश भर से आए किसान मानो वह आईना दिखा गए, जिसमें मुल्क की असली खस्ताहाल सूरत दिखती है।


दृष्टिकोण : सीरत न बदले तो सूरत ही बदल दो

लेकिन सरकार ने तो सूरत बेहतर दिखाने का कोई और ही तरीका तलाश लिया है, वह भी कुछ इस अंदाज में कि न रहे बांस, न बजे बांसुरी। उसने अर्थव्यवस्था का वह पैमाना ही बदल दिया है, जिससे उसके राज में आर्थिक वृद्धि नापने का प्रचलित पैमाना सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर सुखद दिखने लगे या कम से कम पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के आंकड़े कमतर दिखने लगें। जाहिर है, चुनाव नजदीक हैं और सब कुछ उलटा-पुलटा हुआ जा रहा है। विरोधी तो विरोधी, उसके अपने मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रrाण्यम ने भी अपनी ताजा किताब में नोटबंदी को आर्थिक बदहाली का खलनायक बता डाला है।
सुब्रrाण्यम की किताब का शीषर्क भी दिलचस्प है ‘ऑफ काउंसल: द चैलेंजेज ऑफ मोदी-जेटली इकोनॉमी।’ सरकार में रहते तो सुब्रrाण्यम ने कुछ नहीं कहा, लेकिन शायद आर्थिक सव्रेक्षण में नोटबंदी के गड़बड़झाले का संकेत दे चुके थे। मोदी-जेटली इकोनॉमी का सबसे नायाब नमूना तो बेशक नोटबंदी ही है क्योंकि दूसरे बड़े आर्थिक और कराधान के फैसले माल तथा सेवा कर(जीएसटी) का श्रेय पूरी तरह तो लिया नहीं जा सकता। अलबत्ता, उसके गड़बड़झालों और मजबूर होकर अनगिनत बार सुधार करने का श्रेय जरूर मोदी-जेटली जोड़ी को दिया जा सकता है। अभी भी उसमें भारी सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। जीएसटी ने भी अर्थव्यवस्था को झकझोरा। मगर हड़बड़ी में, बिना तैयारी और मुकम्मल सोच-विचार के जीएसटी लागू करने की बड़ी वजह भी शायद नोटबंदी रही है, ताकि उससे ध्यान हटाया जा सके या नए हालात पैदा किए जा सकें।

बहरहाल, सरकार ने अगले आम चुनावों से महज चार-पांच महीने पहले पैमाना बदलने का यह शगल पहली बार नहीं किया है। 2014 में एनडीए सरकार बनने के सात महीने बाद जीडीपी की नई श्रृंखला जारी की गई। जीडीपी का आधार वर्ष बदलकर और जीवीए का नया फॉमरूला लाकर भी नया आईना दिखाने की कोशिश की गई थी। लेकिन उस फॉमरूले से जब यह खुलासा होने लगा कि यूपीए सरकार के 2011-12 के बुरे दौर में वृद्धि दर 10 अंकों के आसपास थी तो पूरा फसाना ही बदलता लगा। नए आंकड़ों के बचाव में वित्त मंत्री और नीति आयोग की अपनी दलीलें हैं मगर शक-सुबहा तो इससे भी पैदा होता है कि इन आंकड़ों का खुलासा नीति आयोग ने किया जबकि यह केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) की जिम्मदारी है। यही नहीं, कोई भी नई श्रृंखला आगे की बात करती है मगर इसके आधार पर पिछले आंकड़े जारी किए जा रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के आंकड़ों पर नजर रखने वाली प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के सीईओ महेश व्यास इसे जादुई अर्थशास्त्र बताते हैं। उन्होंने हाल में कहा, ‘नई जीडीपी पिछली शृंखला के आंकड़े भारत को एक जादुई अर्थव्यवस्था साबित करते हैं जिसमें निवेश का अनुपात जब तेजी से गिरा है तो अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज हो गई है। 2007-08 से 2010-11 के दौर में निवेश और जीडीपी का अनुपात औसतन 37.4 प्रतिशत था जबकि औसत जीडीपी वृद्धि 6.7 प्रतिशत थी। इसके विपरीत हाल के चार वर्षो (2014-15 से 2017-18) में निवेश अनुपात 30.3 प्रतिशत पर नीचे आ गया तो अर्थव्यवस्था की रफ्तार 7.2 प्रतिशत है। तो, क्या यह उत्पादकता का जादू है?’
इस जादुई अर्थशास्त्र के नतीजे यकीनन नोटबंदी में सबसे विकट रूप में दिखे, जिसे सुब्रrाण्यम अपनी किताब में ‘भारी, क्रूर वित्तीय झटका’ बताते हैं। इसे ही काले धन पर विशेष अध्ययन करने वाले प्रोफेसर अरुण कुमार अपनी ताजा किताब में जादू-टोना अर्थशास्त्रियों का कारनामा बता चुके हैं। बहुत हद तक इन्हीं वजहों से आज रोजगार और कृषि के मोच्रे पर तबाही का आलम दिख रहा है। उसी के नजारे दिल्ली की सड़कों पर दिखे हैं। हालांकि किसानों की तबाही का सिलसिला कई दशकों से जारी है और संसद मार्ग पर उनके मंच पर मौजूद लगभग 21 विपक्षी दलों के नेताओं ने भी अपने शासनकाल में उसे पलटने की कोशिश नहीं की है। शायद यह भी एक बड़ी वजह थी कि पिछले लोक सभा चुनावों में इस व्यवस्था को बदलने की लोगों ने नरेन्द्र मोदी से उम्मीद लगाई थी। उन्होंने बड़े वादे भी किए और कृषि उपजों के दाम स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के आधार पर तय करने का वादा भी किया। आज किसान उन्हें इन्हीं सिफारिशों को लागू करने और घाटे से जर्जर किसानों के कर्ज माफ करने के दो मामलों पर संसद का विशेष सत्र बुलाकर फैसला करने की मांग कर रहे हैं।
इनसे कृषि पटरी पर आ जाएगी या यह सिर्फ फौरी राहत भर साबित होगी, यह एक अलग बहस है। लेकिन संसद मार्ग के मंच पर जुटे 21 दलों के प्रतिनिधियों ने अगर उनकी इन दो मांगों पर ईमानदारी से हामी भरी है तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की एक और चर्चा करना गैर-मुनासिब नहीं कहलाएगी। मसलन, पिछले लोक सभा चुनावों में भाजपा नीत एनडीए को करीब 31 प्रतिशत वोट मिले थे और किसान मोच्रे के मंच पर मौजूद विपक्षी दलों को मिले मतों को जोड़ लिया जाए तो उसके मुकाबले लगभग दोगुने के आसपास बैठेगा। ऐसे में किसानों की मांग पर बहुसंख्यक मतों की सहमति मानी जानी चाहिए। अगर संसदीय लोकतंत्र बहुमत की आवाज है तो इस गणित से संसद का विशेष सत्र बुला कर उनकी मांगों पर फैसला करने का औचित्य तो स्वाभाविक तौर पर बनता है।
लेकिन यह भी तय है कि किसानों की ये मांगे फौरी राहते ही देंगी, जैसा कि बार-बार देखा गया है। यूपीए सरकार ने 2008 में किसानों के कर्ज माफ किए थे और कृषि उपजों के समर्थन मूल्य में भी कई बार भारी इजाफा किया। लेकिन उससे न कृषि की बदहाली रुकी, न किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुका। वजह शायद किसान मोच्रे में आए हरियाणा के रिटायर सरकारी कर्मचारी बेहतर बताते हैं, ‘हमने जब नौकरी शुरू की थी तो तनख्वाह 850 रु. थी और गेहूं 450 रु. क्विंटल बिकता था, मैं रिटायर हुआ तो मेरी तनख्वाह तो एक लाख रु. से ऊपर पहुंच गई थी मगर गेहूं का 2000 रु. क्विंटल से नीचे ही बिकता है।’ अब आप कारखाने में बनने वाले सामान की कीमतों, खाद-बीज की कीमतों और आवजाही, ईधन वगैरह की कीमतों में वृद्धि से कृषि उपज की कीमतों की तुलना करें तो सारा मामला समझ में आ जाएगा। यानी कृषि उपज की कीमतें बढ़ाने से ज्यादा जरूरी उद्योग आधारित कीमतों और विलासिता के सामान और संगठित क्षेत्र की तनख्वाहें घटानी जरूरी हैं। क्या यह मौजूदा नीतियों और अर्थव्यवस्था की मौजूदा दिशा से संभव है?
इसी वजह से सरकारें टोटकों का सहारा लेती हैं। लेकिन यह सरकार तो आते ही उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण आसान बनाने पर आमादा थी। तब भी किसान संसद मार्ग पर ऐसी ही शिद्दत से जुटे थे तो उसे पैर वापस खींचने पड़े थे। सरकार ने फसल बीमा जैसे भी उपाय किए उससे किसानों के बदले कंपनियों को ही लाभ मिल रहा है। इससे नीयत पर संदेह होता है। फिर, जरा यह भी देखिए कि इस सरकार ने अपने आखिरी वर्ष में आते-आते सारी संस्थाओं न्यायपालिका, चुनाव आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक सबकी स्वायत्तता पर संदेह पैदा कर दिया है। सीबीआई और अन्य जांच एजेंसियों की तो साख ऐसी चौपट कर दी है कि दोबारा उन्हें खड़ा करना मुश्किल हो सकता है। यही उसने आंकड़ों के साथ भी किया। अर्थव्यवस्था के आंकड़े सिर्फ दूसरी पार्टी की सरकारों को नीचा दिखाने के लिए ही नहीं होते, बल्कि आंकड़े संदिग्ध हो जाएं तो निवेशकों का भरोसा भी टूटता है। ऐसे रवैयों से तो न अर्थव्यवस्था का भला होगा, न किसानों का। बहरहाल, शायद लोग ही इस व्यवस्था को पटरी पर लाने की पहल करें।

हरिमोहन मिश्र


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment