तेलंगाना : भाजपा को क्या हासिल?
जिन तीन राज्यों की विधानसभाओं के लिए मतदान हो चुके, उनमें से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भाजपा को अपनी सरकार बरकरार रखनी है और मिजोरम में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी है।
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जिन दो राज्यों में सात दिसम्बर को वोट डाले जाएंगे, उनमें से राजस्थान में भाजपा को अपनी सत्ता कायम रखनी है और तेलंगाना में अपनी हैसियत दिखानी है ।
मिजोरम उत्तर पूर्वी भारत का एकमात्र राज्य है, जहां की राजनीति चर्च संचालित है। कांग्रेस को भी क्षेत्रीय पार्टियों से तालमेल करके मिजोरम में जीत हासिल होती रही है। इन दलों के नेता इसाई हैं और उनका चुनाव एजेंडा चर्च के पादरी तय करते हैं। इसलिए भाजपा का मिजोरम में पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तरह दावे में कितना दम है, यह भाजपा नेताओं के लिए भी कोई ज्यादा चिंता का विषय नहीं है। लेकिन तेलंगाना भाजपा के लिए चुनौती है। क्योंकि नवगठित राज्य तेलंगाना का राजनीतिक समीकरण दक्षिण भारत के अन्य राज्यों से अलग है। दक्षिण भारत में भाजपा को यों भी अपनी स्वीकार्यता साबित करने में कोई खास सफलता नहीं मिली है। तेलंगाना विधानसभा का यह दूसरा चुनाव है, जो कार्यकाल समाप्त होने से आठ महीने पहले हो रहा है। तेलंगाना राष्ट्र समिति प्रमुख और राज्य के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव ही तेलंगाना राज्य आंदोलन के हीरो हैं। तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के बैनर तले चंद्रशेखर राव ने आंदोलन चलाया और 2014 में लोक सभा चुनाव से पहले तेलंगाना राज्य गठन का श्रेय लिया। उसका चुनावी लाभ चंद्रशेखर राव को मिला और वे सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे।
आंध्र प्रदेश से अलग करके गठित तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य चंद्रशेखर राव को मिला। अपनी लोकप्रियता के आत्मविश्वास से राव इतने लबरेज हुए कि सितम्बर, 2018 में ही तेलंगाना विधानसभा भंग करके चुनाव कराने की मांग कर डाली। प्रधानमंत्री लोक सभा के साथ विधानसभाओं का चुनाव कराने पर बार-बार जोर दे रहे हैं और तेलंगाना विधानसभा का कार्यकाल लोक सभा के आसपास ही समाप्त होने वाला था। लेकिन प्रधानमंत्री समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता अभी तेलंगाना विधानसभा चुनाव का सामना करने को तैयार नहीं थे। यह बात 27 नवम्बर को ही आधी स्पष्ट हो गई, जब प्रधानमंत्री ने हैदराबाद में अपनी पहली चुनावी रैली को संबोधित किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) का नाम नहीं लिया। टीडीपी प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के अचानक साथ छोड़ देने का सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को तेलंगाना में उठाना पड़ सकता है। नायडू भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ से दरअसल आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देने के मुद्दे को लेकर अलग हुए, लेकिन तेलंगाना विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ मिलकर ‘महाकुटमी’ गठजोड़ में शामिल होने से भाजपा के लिए रणनीति तैयार करना कठिन हो गया। प्रधानमंत्री के भाषण से लगा कि वे नायडू से बिगाड़ मोल लेने को तैयार नहीं हैं। अवसरवादी गठजोड़ और परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ बोलने के क्रम में मोदी ने टीआरएस और कांग्रेस पर हमला बोला, मगर उनके निशाने पर वास्तव में कांग्रेस है। मोदी ने हैदराबाद में तेलंगाना के मतदाताओं से कांग्रेस को एक भी वोट न देने की अपील की, लेकिन टीआरएस के लिए ऐसा नहीं कहा। तेलंगाना में भाजपा के पास अपना वोट नहीं है। भाजपा को हमेशा से टीडीपी के साथ गठजोड़ का वोट मिलता रहा है। तेलंगाना राज्य आंदोलन के विरोध में भाजपा की भूमिका टीडीपी के समर्थन की रही है।
आंध्र के मुख्यमंत्री के रूप में या विपक्षी नेता के रूप में नायडू तेलंगाना गठन के विरोधी रहे। कांग्रेस भी उतनी ही विरोधी रही। किंतु कांग्रेस ने हवा का रुख देखकर रंगत बदला । 2009 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव दोनों में कांग्रेस ने तेलंगाना राज्य गठन के वायदे पर अच्छी-खासी सीटें जीती। भाजपा की कुछ रणनीति से तेलंगाना के मतदाता भ्रम में हैं । छत्तीसगढ़ से ज्यादा पुराना और संगठित नक्सली गढ़ तेलंगाना रहा है । प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 नवंबर को हैदराबाद के बाद महबूबनगर में रैली की, जो नक्सल प्रभावित क्षेत्रा है । 26 नवंबर को तेलंगाना की छत्तीसगढ़ से लगी सीमा पर 11 माओवादी मारे गए । प्रधनमंत्री ने ‘शहरी नक्सली’ और उसको कांग्रेस समर्थन का नाम नहीं लिया और एक बार भी तेलंगाना पुलिस की तारीफ नहीं की, जिसने अपनी पुलिस को नक्सली हमले का जवाबी तकनीक सिखाकर नक्सलियों पर काबू पाने में महारत हासिल की हुई है। ‘शहरी नक्सली’ का प्रधानमंत्री का बयान मध्य प्रदेश में हावी रहा और लगातार चर्चा में है। ‘देशद्रोह’ के जुर्म में पुणो जेल में बंद ‘शहरी नक्सलियों’ में से जनकवि वारावारा राव तेलंगाना के ही हैं।
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