मीडिया : मीडिया की दुरभिसंधि

Last Updated 04 Feb 2018 03:22:51 AM IST

अपने यहां नई फिल्में शुक्रवार के दिन ही रिलीज की जाती हैं. कई दिन पहले से अपनी भड़कीली ड्रेसों में हीरो-हीरोइनें खबर चैनलों में आ बिराजते हैं, और उतनी ही भड़कीली ड्रेस में एंकरें अंग्रेजी में गिटपिटाती हुई उनकी फिल्म का प्रोमो करने लगती हैं.


मीडिया : मीडिया की दुरभिसंधि

क्या अपना मीडिया यह सब फ्री में करता है? जिस मीडिया के एक-एक सेकेंड के प्रसारण में हजारों रुपये प्रति सेकेंड खर्च होते हैं, वह फ्री में काम नहीं करता. करता होता तो हर एंकर ‘ब्रेक के बाद’ का जाप न करता. सब जानते हैं कि फिल्म के ‘प्रीमियर’ में ‘फिल्म क्रिटिक्स’ को लिफाफे पकड़ाए जाते हैं ताकि ‘रिव्यूज’ ठीक-ठाक हों. जब रिव्यूअरों को दस-बीस हजार रुपये यों ही टिका दिए जाते हैं, तो खबर चैनलों में घंटे-आधे घंटे के सीधे प्रमोशन के लिए क्या न किया जाता होगा? सभी जानते हैं कि फिल्म के बजट में मारकेटिंग का बजट अलग से होता है. तभी तो मामूली फिल्म को भी रिव्यूअर पांच में से तीन चार दिया करते हैं. इस तरह के ‘प्रिव्यूज’, ‘रिव्यूज’ और ‘प्रोमोज’ आदि ‘पॉजिटिव’ किस्म के होते हैं, जिनमें हीरो-हीरोइन भड़कीली ड्रेस पहनकर एक दूसरे की और निदेशक की ‘महानता’ का बखान करते रहते हैं.
लेकिन ऐसा लगता है कि अब इतने से भी बात नहीं बनती. अब फिल्म बेचने के लिए ‘विवाद’ पैदा किए और करवाए जाते हैं, और उन्हीं को मीडिया द्वारा ‘बड़ी खबर’ बनाया जाता है. इस तरह दर्शकों की उत्सुकता जगाई जाती है ताकि विवाद का कारण जानने के लिए वे सिनेमा हाल तक आ सकें. ‘विवाद’ से ‘प्रोमो’ और प्रोमो से ‘बॉक्स ऑफिस’ पर ‘हिट’ कराने तक की ‘पेड प्रक्रिया’ पिछले कुछ बरसों में परवान चढ़ी है. बड़े बजट की हर फिल्म रिलीज से पहले एक न एक छोटा-बड़ा विवाद लेकर आती है. जितना बड़ा बजट होता है, उतना विवाद कराया जाता है. जितने दिन विवाद चलता है, उतनी कमाई की उम्मीद की जाती है. यह ‘विवाद’ एक निवेश की तरह होता है.

कभी-कभी तो साफ-साफ महसूस होता है कि अमुक विवाद के पीछे निर्माता का पैसा लगा है. लेकिन ऐसे ‘विवादों’ की उम्र एक-दो हफ्ते की ही होती है. ऐसे विवाद शुरू से अंत तक मारकेटिंग एजेंसी के जरिए ‘कंट्रोल्ड’ और ‘वैल मेनेज्ड’ होते हैं. विवाद-प्रिय मीडिया उनको लिमिटेड समय तक चलाता है. जब फिल्म रिलीज हाकर कमाई करने लगती तो बताया जाने लगता है कि वह ‘दो सौ करोड़’ वाले ‘क्लब’ में शामिल हो गई है. दो सौ या पाच सौ करोड़ के क्लब की कल्चर ने विवादों का बिजनेस करना शुरू किया है. बड़ी पूंजी इन दिनों ऐसे ‘सांस्कृतिक विवादों’ को अपने लिए फायदेमंद समझती है. ऐसे विवादों का ‘सांस्कृतिक उद्योग’ में लगने वाली बड़ी पूंजी से एक नये प्रकार का संबंध बनता नजर आता है.  
अब फिल्में ‘पॉपूलर’ या ‘सुपर हिट’ नहीं कही जातीं,‘सौ करोड़’ या दो सौ, पांच सौ, या हजार करोड़ के क्लब वाली कहलाती हैं. ये कलात्मक नहीं हैं, बल्कि बड़ी पूंजी के सिरजे मानक हैं. ‘पदमावत’ का एक ‘आल्टर ईगो’ रही है ‘तेलुगू की ‘बाहुबली’. मूल तेलुगू में होने के बावजूद ‘बाहुबली’ हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में एक साथ रिलीज हुई और हजार करोड़ की रिकार्डतोड़ कमाई करने वाली बनी. ‘बॉलीवुड’ को ‘तेलुगूवुड’ की यह चुनौती पचने वाली नहीं रही. जरा-सा तेलुगूवुड और इतना बड़ा बालीवुड! यों तो ‘दंगल’ हजार करोड़ और ‘सुलतान’ पांच सौ करोड़ क्लब वाली बनीं, लेकिन यही क्यों रुका जाए? बाहुबली भंसाली की भी ‘आल्टर ईगो’ बनी होगी! बड़ी पूंजी बड़ा अहंकार पैदा करती है.
पद्मावत की रिलीज से पहले सबसे लंबे हिंसक विवाद और रिलीज के बाद उसके अचानक शांत हो जाने को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है. कोई आश्चर्य नहीं कि रिलीज के बाद पद्मावत की तुलना बाहुबली से की जाने लगी. पद्मावत विवाद के दो चरण साफ दिखते हैं. पहला चरण ‘नरम विरोध’ का रहा जब राजस्थान में भंसाली पर ‘हमला’ हुआ. लेकिन जल्दी ही गुजरात के चुनावों ने पद्मावत को ‘पावर पॉलिटिक्स’ का ‘औजार’ बना दिया. यहीं से ‘शुरुआती नरम विवाद’ हाथ से निकलकर ‘मारकाट छाप’ विवाद बन गया.
पद्मावत की आड़ में ‘राजपूती आन बान शान’ नया ब्रांड बन गई. राज्य सरकारों और मीडिया ने मारने-काटने की धमकी देने वालों को हीरो बना दिया. गरम विवाद ‘आउट ऑफ कंट्रोल’ हो गया. बड़ी पूंजी, बड़ा बजट, बड़ी फिल्म और बड़ी कमाई की लालसा बड़े विवाद पैदाकर एक हिंसक वातावरण ही बना सकते हैं. बॉलीवुड, पॉपूलर कल्चर, मीडिया और सांस्कृतिक राजनीति (कल्चरल पॉलिटिक्स) की इस चौमुखी दुरभिसंधि को समझना जरूरी है.

सुधीश पचौरी


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