नजरिया : देखते हैं इस प्रयोग को भी

Last Updated 04 Feb 2018 03:29:17 AM IST

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नजरिया : देखते हैं इस प्रयोग को भी

बजट की बिसात पर मोदी सरकार की सीधी चाल ने सियासी अटकलों को एक बार फिर मात दे दी है. इस चाल से एक तरफ देश का सबसे बड़ा ‘मिडिल क्लास’ खाली हाथ ताकता रह गया, तो दूसरी तरफ गांवों और किसानों के लिए सरकार का खजाना खुल गया है. प्रधानमंत्री ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि बजट लोक-लुभावन नहीं होगा. इशारा साफ था कि बजट में देश की आर्थिक दिशा का ध्यान रखा जाएगा, चुनावी नफे-नुकसान का नहीं. फिर भी, 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले माना जा रहा था कि तमाम अगर-मगर के बावजूद इसमें आम लोगों के लिए कुछ लॉलीपॉप जरूर होंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि चार साल पहले सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अर्थव्यवस्था में जिस सुधार का संकल्प जताया था, उस इलाज के लिए मोदी की इस ‘बजटपैथी’ में मीठी गोलियां कम, कड़वी गोलियां ज्यादा हैं.
 बजट में फर्क ये आया है कि अब खुद प्रधानमंत्री आम बजट पर देश से संवाद करते हैं. बजट से पहले अर्थशास्त्रियों के साथ और नीति आयोग के साथ बैठकें करते हैं. इसलिए अब वित्तमंत्री का नाम लेकर बजट बोलने की परम्परा छोड़ने का वक्त आ गया है. बजट 2018-19 को अगर मोदी-जेटली का आम बजट बोला जाए, तो यह ज्यादा उपयुक्त होगा. इस बार मोदी का प्रभाव और असर ज्यादा है, जेटली का कम. आम बजट पर अगर अरु ण जेटली का प्रभाव ज्यादा होता, तो देश का सेंसेक्स हरा रंग दिखा रहा होता. मगर, यह लाल रंग दिखा रहा है. आम बजट को लेकर बाजार इस बार जितना निराश दिखा है, मोदी सरकार में पहले कभी नहीं दिखा था. तो क्या इसका मतलब यह है कि मोदी-जेटली के बजट ने बाजार का बेड़ा गर्क कर निवेशकों से उनकी उम्मीदें छीन लीं?

पिछले साल और इस साल के दोनों बजटों के बीच का फर्क शेयर बाजार बता रहा है. तब सेंसेक्स का ग्रीन लाइट इसकी समीक्षा कर रहा था. वह भी तब जबकि नोटबंदी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था कराह रही थी. विपरीत परिस्थितियों में तब भी जेटली के बजट में मोदी का हस्तक्षेप था. मगर वह निवेशक और बाजार के अनुकूल था. मोदी-जेटली उस बजट में एकाकार हो गए थे.
जेटली मास लीडर नहीं हैं, जबकि नरेन्द्र मोदी मास लीडर हैं. 2019 का आम चुनाव जेटली को दिखे या नहीं दिखे, पीएम मोदी को दिखता है. उससे पहले होने जा रहे विधा नसभा चुनाव भी अब तक हुए विधान सभा चुनावों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि अब तक विपक्ष परीक्षा दे रहा था, इस बार बीजेपी और एनडीए परीक्षा देगी क्योंकि ज्यादातर राज्यों में इनकी ही सरकारें हैं. लिहाजा, लोक कल्याण का नजरिया इस आम बजट में हावी है. कल्याणकारी अर्थशास्त्र को सरकारें तभी अपनाती हैं, जब चुनाव नजदीक होता है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सदन में और सदन से बाहर भी यह बात कही है कि उनकी प्राथमिकता चुनाव नहीं होते. उनकी प्राथमिकता में होता है देश. वे देश को देखकर और तात्कालिक नफा-नुकसान से ऊपर उठकर दीर्घकालिक नजरिये से देश की नीतियां बनाते हैं. इसका मतलब ये है कि आगे भी मोदी सरकार कल्याणकारी अर्थशास्त्र को साथ लेकर चलने वाली है. यानी मोदी की नीतियों में किसान बने रहेंगे और गरीबों को भी प्राथमिकता दी जाती रहेगी.
2018 का बजट अगर किसी एक बात के लिए याद किया जाएगा, तो वह है देश की 50 करोड़ आबादी को ‘आयुष्मान भारत’ योजना के जरिये बीमा के दायरे में लाने की पहल. ये योजना मोदी सरकार का एक अभूतपूर्व कदम है. इसके तहत सरकार ने दस करोड़ परिवारों को पांच लाख सालाना की सुरक्षा बीमा योजना देने का प्रावधान रखा है. सरकार का दावा है कि गरीबों के लिए दुनिया की यह सबसे बड़ी योजना है. विश्व भर में स्वास्थ्य का बुनियादी अधिकार देने वाले देशों में भी इतनी बड़ी योजना नहीं है. यह बात अलग है कि इसके लिए अब तक सरकार ने 2 हजार करोड़ रु पये ही आवंटित किए हैं, जबकि नीति आयोग के सूत्रों के मुताबिक इस पर सालाना करीब 11 हजार करोड़ रु पये की जरूरत पड़ेगी. इस योजना को 2022 तक पूरी तरह लागू करने का दावा किया जा रहा है. यानी इसके क्रियान्वयन की सीमा अगले लोक सभा चुनाव के बाद पूरी होगी. सियासी तौर पर इसी योजना को चुनावी गेम चेंजर माना जा रहा है.
सरकार ने किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना फसल का दाम मिलना सुनिश्चित करके भी अनाज उत्पादकों को बड़ी सुरक्षा दी है. जरूरत की घड़ी में सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की खरीद करेगी. यानी किसानों की फसल हर हाल में बिकेगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर नहीं बिकेगी, यह तय कर दिया गया है. इससे किसानों को फसल का डेढ़ गुणा दाम मिलना भी तय हो गया है.
मोदी-जेटली बजट को इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि चुनाव से पहले मध्यम वर्ग को मायूस करने की हिम्मत दिखाना सबके वश की बात नहीं. टैक्स देने वाले इस वर्ग पर शिक्षा और स्वास्थ्य का सेस 1 प्रतिशत बढ़ा दिया गया है. इसी रकम से देश की 50 करोड़ आबादी का बीमा कराया जाएगा. मुफ्त गैस कनेक्शन पाने वाले परिवारों की तादाद भी अब 8 करोड़ होगी. देश की विशाल आबादी जिसमें किसान शामिल हैं और गरीबी रेखा से नीचे के लोग भी, उनके हित में मोदी सरकार ने आगे बढ़कर कदम बढ़ाया है. यह निर्णय अर्थशास्त्रीय नजरिये से नहीं, राजनीतिक नजरिये से ही हो सकता है. जाहिर है मोदी जैसे मास लीडर ही ऐसा कदम उठा सकते हैं. आर्थिक उदारीकरण के दौर से पहले यानी नरसिम्हाराव से पहले की सरकारें लोककल्याण के लिए मध्यमवर्ग पर कोई सेस नहीं थोपा करती थी, बल्कि यह रकम सिगरेट, शराब जैसी चीजों को महंगी करके जुटाई जाती थी.
 नेहरू-गांधी के जमाने की सरकारें पूंजीपतियों को 20 सूत्री कार्यक्रम से जोड़ती थीं. कल्याणकारी कार्यों को पूरा करने की जिम्मेदारी उन पर थोपती थीं. अब भी बची-खुची उन नीतियों में इस सोच के अवशेष देखे जा सकते हैं. मगर, अब उदारीकरण के बाद से सरकारों के रु ख में ये बदलाव आया है कि वे पूंजीपतियों, जिन्हें अब इस नाम से नहीं बुलाया जाता बल्कि निवेशक कहा जाता है, पर लोक कल्याण की आर्थिक जिम्मेदारी नहीं थोपते. उनकी जगह मध्यमवर्ग ने ले ली है. यही मध्यम वर्ग की पीड़ा है. अमीर भी उन्हीं पर बोझ डाल रहे हैं, गरीब भी उन्हीं पर.
मोदी सरकार ने वैसे 250 करोड़ रु पये तक के कारोबार करने वाली कंपनियों के टैक्स को घटाकर 25 प्रतिशत पर ला दिया है. लेकिन शेयर बाजार के चेहरे से कॉरपोरेट जगत में जो गुस्से की लाली दिख रही है, उससे पता चलता है कि वह मोदी सरकार से रूठा हुआ है. मोदीजी सही कहते हैं, अभी उन्हें समझने में वक्त लगेगा. गरीब जनता और किसान मध्यम वर्ग पर बोझ बनकर भी अपना हितैषी किसी और को समझ रहे हैं जबकि कॉरपोरेट जगत अपने हितैषी को ही अपनी लाल आंखें दिखा रहा है. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आम बजट में अपनी नई सोच को आजमाया है, एक नया नजरिया पेश किया है. यही आम बजट की खासियत है और इसीलिए कहा जा सकता है कि लीक से हटकर है यह बजट.
 

उपेन्द्र राय
तहलका के सीईओ एवं एडिटर-इन-चीफ


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