राजनीति : वामपंथ का उत्तर-सत्य

Last Updated 24 Jan 2018 06:23:36 AM IST

सन 2019 में कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ने के सीताराम येचुरी के विचार को ठुकराने के लिए प्रकाश करात और उसके गुट के लोगों शर्म करो.


राजनीति : वामपंथ का उत्तर-सत्य

भाजपा की कितनी बी टीमें हैं? नीतीश कुमार तो जगजाहिर हैं. कल कांग्रेस ने भी एक कठपुतली चुनाव आयोग के इशारे पर ‘आप’ पर हमला करके वही काम किया था. ‘क्या हमारे मूर्ख सेकुलरिस्ट यह नहीं समझ सकते हैं कि सिर्फ एक व्यापक और अनुशासित मोर्चा ही आरएसएस के फासीवाद को परास्त कर सकता है.’ ये शब्द हैं प्रसिद्ध प्रगतिशील फिल्मकार और बुद्धिजीवी आनंद पटवर्धन के, आज (23 जनवरी) के टेलिग्राफ में. दूसरी ओर मोदी शिविर में प्रकाश करात के वीटो की खुशी में पटाखे फूट रहे हैं.

भाजपा ने भले अब तक आधिकारिक तौर पर कोई बयान न दिया हो, लेकिन उसके आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के एक-के-बाद-एक ट्वीट; उनकी खुशी को बताने के लिए काफी है. मालवीय ने अपने एक ट्वीट में कहा है, ‘सीताराम येचुरी महासचिव हो सकते हैं, लेकिन सत्ता करातों के हाथ में है. वाम ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है जैसे समाजवादियों ने.’ उनका दूसरा ट्वीट है; अखिलेश यादव के इस कथन पर कि ‘अब तक उन्होंने किसी पार्टी के साथ गठजोड़ करने के बारे में नहीं सोचा है.’ पिछली 18-20 जनवरी को कोलकाता में सीपीआई (एम) की पार्टी कांग्रेस में बहस के लिए राजनीतिक और सांगठनिक नीति के प्रस्ताव के मसौदे को अंतिम रूप देने के लिए बैठक हुई थी.

यह महज एक मसौदा है, जिसे अंतिम रूप पार्टी की कांग्रेस में दिया जाएगा. फिर भी केंद्रीय कमेटी की बैठक में में पहले दिन से ही इसे लेकर जिस प्रकार की गुटबाजी दिखाई दी, उससे सभी वाम हितैषी हतप्रभ हैं. पूरे तीन दिन सिर्फ  एक शब्द, ‘समझ’ पर मगजपच्ची चली. आगामी चुनाव में कांग्रेस के साथ दूरदराज तक भी कोई ‘समझ’ बन सकती है या नहीं, इस पर! प्रकाश गुट भी यह तो मानता था कि आज भाजपा जनता की सबसे बड़ी शत्रु है, और यह भी मानता है कि चुनाव के बाद जरूरत पड़ी तो सत्ता पर भाजपा को आने से रोकने के लिए कांग्रेस से समझौता किया जा सकता है, लेकिन यह मानने के लिए तैयार नहीं हुआ कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस के साथ समझौता तो दूर, किसी भी प्रकार की स्थानीय समझ भी कायम नहीं की जा सकती है! आनंद वर्धन ने ऐसा खेल खेलने वालों को भाजपा की अगर ‘बी टीम’ कहा है तो उसे असंगत नहीं कहा जाएगा.

व्यावहारिक राजनीति के धरातल पर, ऐसे समय में जब सामने सीधे सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा मंडरा रहा है, किसी भी जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले राजनीतिक समूह का ऐसा जिद्दी और अनाड़ी रवैया शायद दुनिया में कहीं भी किसी ने नहीं देखा होगा. सीपीएम का यही प्रकाश गुट तमिलनाडु में उस डीएमके के साथ सहयोग करने के लिए तैयार है, जो कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है. लेकिन प्रकाश करात गुट की इस जिद का कारण यह कहा जा रहा है कि अगर कांग्रेस के साथ किसी भी प्रकार के समझौते की कोई गुंजाइश छोड़ी गई तो पश्चिम बंगाल की पार्टी उसके बहाने ही कांग्रेस के सीटों का समझौता कर लेगी. वे यह झूठा प्रचार भी करते हैं कि पश्चिम बंगाल में 2011 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता करने से पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ था. ये लोग यह नहीं जानते कि राजनीति काफी हद तक जनता के परसेप्शन का खेल होता है.

लोगों के मन में, वाम मोर्चा के चौंतीस साल के अच्छे पहलू नहीं, सिर्फ बुरे पहलू ही जमा हैं. जीवन में अच्छे दिन भुला दिए जाते हैं, लेकिन बुराइयां स्थाई रहती है. जीवन की सारी कहानियां दुख से पैदा होती हैं. सच्चाई यह है कि पिछले चुनाव में भी उत्तर बंगाल में कांग्रेस के परंपरागत आधार का वाम को अच्छा-खासा लाभ मिला था और पूरे बंगाल में वह लड़ाई में थोड़ा उतर पाई थी. आज सिलीगुड़ी की तरह के बंगाल के दूसरे सबसे बड़े शहर में वाम का मेयर है. आज भी बंगाल में अपनी साख को समग्र रूप से वापस हासिल करना अकेले वाम के बूते में नहीं है. जनतांत्रिक ताकतों के किसी एकजुट संघर्ष के बीच से ही वह फिर से पनप सकता है.

प्रकाश करात कंपनी यह सब जानते हुए भी पार्टी में अपने समर्थकों को बरगलाने के लिए इन बातों को छिपाता है. जो लोग बंगाल की जमीनी सचाई से परिचित नहीं है, वे बंगाल की राजनीति को नियंत्रित करना चाहते हैं. करात सीपीआई (एम) के एक ऐसे बड़े नेता रहे हैं, जिनकी जनता के बीच अपनी कोई साख नहीं है. वे पार्टी के अंदर अपने वर्चस्व को कायम रखने में जरूर माहिर हैं, और एक बंद संगठन की अपनी कमजोरियों का लाभ उठा कर काफी अर्से से पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व के अपनी ही तरह के जनाधार-विहीन लोगों के बल पर अपना एक बहुमतवादी गुट बनाए हुए हैं.

1996 में जब हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव थे, तब उन्होंने अपनी इसी ताकत के प्रयोग से ज्योति बसु के स्तर के नेता को धूल चटा दी थी और इस प्रकार सीपीआई (एम) के भविष्य को मिट्टी में मिलाने का नेतृत्व किया था. तब ज्योति बसु को कहना पड़ा था कि यह एक ऐतिहासिक भूल हुई है, अब बस निकल गई है, पार्टी के विस्तार का ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला है. यह शायद इतिहास की एक और विडम्बना ही थी कि सन 2004 में फिर एक बार कांग्रेस के अल्पमत के कारण सीपीएम को यूपीए-1 के साथ काम करने का मौका मिला था. लेकिन यह मौका भी सीपीएम के लिए  किसी लंबी छलांग का मौका बनता, उसके पहले ही अमेरिका के साथ परमाणविक संधि के बहाने गंवा दिया. इसके बाद के 2009 के चुनाव में लोक सभा में वामपंथ को उसके इतिहास की सबसे कम सीटें मिली.

सीपीएम की केंद्रीय कमेटी की इस बैठक के शुरू में ही यह साफ था कि इसमें सिद्धांतों के प्रश्न या बहस-मुबाहिसा सिर्फ दिखावटी हैं. कहना न होगा, सीपीआई (एम) की इस बैठक में जनवादी केंद्रीयतावाद की ऐसी महत्ता स्थापित हुई कि जिसमें सिक्का उछाल कर नहीं, बल्कि तीन दिन की सारहीन बहस के बाद मतदान से प्रस्ताव का एक मसौदा पारित किया गया. फिर भी, यह खास उद्देश्यों से बुद्धि का नहीं, शुद्ध संख्या शक्ति के प्रयोग का खेल था. दुर्भाग्य की बात यह है कि आगे पार्टी कांग्रेस में भी इन्हीं बातों को पीटा जाएगा. यह है वामपंथ का उत्तर-सत्य.

अरुण माहेश्वरी


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