नजरिया : बदल तो रहा है नर्मदा का पानी

Last Updated 29 Oct 2017 12:44:56 AM IST

2014 के बाद राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण देश के कई राज्यों में विधान सभा चुनाव हो चुके हैं.


नजरिया : बदल तो रहा है नर्मदा का पानी

लेकिन उसका लिटमस टेस्ट 182 सीटों वाली गुजरात विधान सभा के लिए होगा जो 2019 के लिए दिशा भी तय करेगा. गुजरात में 22 वर्षों से सत्ता में रही बीजेपी ने देश को नरेन्द्र मोदी के रूप में प्रचंड बहुमत वाला प्रधानमंत्री दिया है तो बीजेपी को दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी में तब्दील करने वाले अध्यक्ष के रूप में अमित शाह भी सौंपा है. पार्टी से लेकर केंद्र सरकार तक गुजरात का परचम लहराने के बाद 2017 के विधान सभा चुनाव में गुजराती अब कौन सा करिश्मा दिखाने जा रहे हैं; इस पर सबकी नजर है. खुद मोदी-शाह की जोड़ी इस बार आश्वस्त नहीं दिख रही है. बिहार विधान सभा चुनाव की तर्ज पर गुजरात में भी बदल रही सियासत इस जोड़ी के विश्वास पर हथौड़े चला रही है. सवाल यही है कि क्या बिहार बनने जा रहा है गुजरात का सियासी जंग?
वैसे बिहार विधान सभा चुनाव हारने के बावजूद मोदी-शाह की जोड़ी ने वहां नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर बाजी पलट दी, मगर चुनाव मैदान के बाहर और चुनाव मैदान में खेल बिल्कुल अलग-अलग बातें होती हैं. अधिक समय नहीं हुआ है, जब अमित शाह के नेतृत्व में सारा जोर लगा चुकने के बावजूद राज्य सभा में पहुंचने से अहमद पटेल को रोकने में बीजेपी विफल रही. अब चुनाव के समय में ‘वोट खरीदने’ के आरोप भी स्टिंग बनकर बीजेपी को धमका रहे हैं. बिहार में बीजेपी की हार का विश्लेषण यह सबक देता है कि पार्टी जनाधार बनाए और बचाए रखते हुए भी चुनाव इसलिए हार गई थी क्योंकि वहां विरोधी मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हो गया था. कांग्रेस गुजरात में इसी फॉर्मूले पर नजर गड़ाए है और विरोधी मतों का ध्रुवीकरण कैसे किया जाए, इसको ध्यान में रखकर रणनीति बना रही है.

2007 और 2012 में दोनों दलों को मिले वोटों का फर्क स्थिर रहा है. फर्क है 9 फीसद वोट का. बीजेपी का अपना प्रदर्शन इन दो चुनावों में दो प्रतिशत के अंक से गिरा है. इसका सीधा मतलब है कि अगर कांग्रेस अपना पिछला प्रदर्शन बरकरार रखते हुए भी सिर्फ  उसमें 5 फीसद वोट जोड़ ले, तो गुजरात विधान सभा की तस्वीर बदल सकती है. सिर्फ 5 प्रतिशत वोट बीजेपी से छिटक जाए और वह कांग्रेस में आकर जुड़ जाए तो शाह-मोदी की जोड़ी को बिहार जैसा चुनाव नतीजा देखने को अपने ही गृहप्रांत में विवश होना पड़ सकता है. हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर जैसे तीन युवा नेताओं ने पिछले तीन सालों में गुजरात की बीजेपी सरकार के लिए तगड़ी चुनौती पेश की है. इन तीनों नेताओं की पहचान जातीय नेता की होते हुए भी स्थानीय नहीं है. इन नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी हैं. हार्दिक पटेल 18 फीसद पाटीदार नेताओं के आरक्षण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करते हुए जेल जा चुके हैं तो गोरक्षा के नाम पर दलितों की पिटाई के खिलाफ सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा करने का श्रेय जिग्नेश मेवानी को जाता है. ‘आजादी कूच आंदोलन’ करते हुए उन्होंने 20 हजार दलितों को मरे हुए जानवरों को न उठाने और मैला न ढोने की शपथ दिलाई और इस तरह न सिर्फ  गुजरात की 7 प्रतिशत दलित आबादी का दिल जीता, देश भर के दलितों को रास्ता दिखाने का काम किया. वहीं, कांग्रेस में शामिल हो चुके अल्पेश ठाकोर को पाटीदार आंदोलन के खिलाफ ओबीसी और दलित जातियों को एकजुट करने का श्रेय जाता है. जातीय राजनीति के तीन किरदारों के बीजेपी के विरु द्ध खड़े होने से शाह-मोदी की नींद उड़ गई है. वैसे, उनके लिए उम्मीद भी इन्हीं तीन किरदारों में दो हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर हैं, जो एक-दूसरे के खिलाफ अपने जनाधार को सुलगाते रहे हैं. एक अगर कांग्रेस के साथ है, तो दूसरे को कांग्रेस के खिलाफभड़काना बीजेपी के लिए आसान रहेगा.
वैसे चुनाव पूर्व सर्वेक्षण की मानें तो इन तीनों नेताओं का समर्थन हासिल करने के बावजूद गुजरात में शाह-मोदी की जोड़ी को कांग्रेस हरा पाएगी, इसमें भारी संदेह है. सर्वे के मुताबिक विधान सभा की लगभग वर्तमान स्थिति ही रहने वाली है. परन्तु जातीय राजनीति का तापमान मापने में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण हमेशा विफल रहे हैं, यह भी एक बड़ी सच्चाई है. इसलिए इन सर्वे का इस्तेमाल तो बीजेपी जरूर करना चाहेगी, लेकिन इस पर यकीन कर लेने की गलती पार्टी कतई नहीं करना चाहेगी. बिहार विधानसभा चुनाव में इस गलती की सजा पार्टी भुगत चुकी है. वहां पार्टी का वोट प्रतिशत बरकरार रहा था. लेकिन गुजरात में पार्टी का वोट प्रतिशत जातीय समीकरण की वजह से दरकता दिख रहा है. ऐसे में सवाल सिर्फ उन 5 प्रतिशत वोटों का है, जिसके कांग्रेस की ओर खिसक जाने मात्र से सिंहासन हिल जाता है.
गुजरात में 54 फीसद ओबीसी आबादी है और करीब 70 विधान सभा सीटों पर इन मतों का बड़ा प्रभाव है. ऐसी ज्यादातर सीटें देहात में हैं. राहुल गांधी ने बीजेपी को कारोबारियों की पार्टी बताते हुए जीएसटी को ‘गब्बर सिंह टैक्स’ बताया है तो इसके पीछे भी उनकी नजर ग्रामीण इलाकों की यही सीटें हैं. अल्पेश ठाकोर को कांग्रेस से जोड़ना भी इसी रणनीति को कामयाब करने की जद्दोजहद के तहत है. अल्पेश न सिर्फ क्षत्रिय-ठाकुर सेना के अध्यक्ष हैं बल्कि ओबीसी एकता मंच के भी संयोजक हैं. युवाओं के बीच भी वे इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि उन्होंने नशामुक्ति के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा किया था. उन्होंने बेरोजगारी के मुद्दे को भी अपने आंदोलन से जोड़ लिया.
राहुल गांधी ने अगर गुजरात चुनाव में बेरोजगारी भत्ता देने की बात कही है तो इसके पीछे प्रेरणा अल्पेश का युवाओं को साथ लेकर चलाया गया आंदोलन ही है. इसके अलावा, कांग्रेस अगर हार्दिक पटेल को पार्टी से नहीं जोड़ रही है और केवल समर्थन पाने की उसकी रणनीति है तो इसके पीछे वजह ओबीसी ही हैं जिनसे आरक्षण की वजह से पाटीदारों का 36 का रिश्ता है. पाटीदार समुदाय की ताकत इसी बात से समझी जा सकती है कि मौजूदा विधानसभा में करीब 40 विधायक इसी समुदाय से हैं. हार्दिक ने पाटीदार समुदाय का जो बड़ा आंदोलन खड़ा करने में सफलता पाई, उसके परिणामस्वरूप बीजेपी का यह आधार भी दरका है.
गुजरात चुनाव में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का दिख रहा आत्मविश्वास चौंका रहा है. लेकिन इसके पीछे असली वजह यही तीन युवा तुर्क हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश हैं. फिर भी, बीजेपी को केन्द्र की ताकत और गुजरात की जनता पर पूरा भरोसा है. मोदी-शाह के पास अपने प्रदेश की जनता पर एतबार करने का पूरा कारण है कि जिन्होंने उन्हें राष्ट्रीय भूमिका के लिए चुना है, वे विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोट देने का क्षेत्रीय दायित्व निभाने से उन्हें नहीं रोकेंगे. लेकिन सवाल यह है कि 2014 में जो मानसिकता गुजराती जनता की थी, क्या 2017 में भी वही है? अगर, इसका उत्तर हां है तो बीजेपी के लिए चिन्ता का कोई कारण नहीं. लेकिन सतह पर बदली हुई परिस्थितियां बताती हैं कि गुजरात में नर्मदा का पानी बदल रहा है.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ एवं एडिटर-इन-चीफ


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