पटाखे : जिंदगी की शर्त पर नहीं

Last Updated 11 Oct 2017 04:16:59 AM IST

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में पटाखों की ब्रिक्री पर एक नवम्बर तक रोक लगा दी है.


पटाखे : जिंदगी की शर्त पर नहीं

जब भी न्यायालय कोई आदेश देता है, तो उसकी कई तरह से व्याख्याएं की जाती हैं, और इन्हें समाज के विभिन्न हिस्से अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक हितों के आधार पर करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की एक व्याख्या यह भी की जा रही है कि उसने पटाखों की ब्रिकी पर तो रोक लगाई है, लेकिन उसके इस्तेमाल पर पाबंदी नहीं यानी राजधानी दिल्ली क्षेत्र के लोग चाहें तो आसपास के दूसरे शहरों से लाकर पटाखों का इस्तेमाल कर सकते हैं. दिवाली को पटाखों के सबसे बड़े त्योहार के रूप में देखा जाता है, और अदालत का एक नवम्वर तक पटाखों की ब्रिकी पर रोक का आदेश इसी आलोक में आया है. सुप्रीम कोर्ट के सामने एक याचिका आई है कि दिल्ली में हवा इतनी खराब होती जा रही है कि सांस लेना मुश्किल हो रहा है, और पटाखों के कारण यह और जहरीली हो जाती है.

कोर्ट ने इससे पहले भी पटाखों की बिक्री पर रोक लगा रखी थी,  लेकिन वह कुछ शतरे के साथ थी. सवाल यह नहीं है कि दिल्ली में हवा के जहरीले होने के कारण कोर्ट के फैसले की व्याख्या की जाए. समाज में हर चीज कोई संस्था ही तय करे, यह अच्छी बात नहीं. लिहाजा, कोर्ट के आदेश की समीक्षा करने से बेहतर है कि हम आसपास के हालात को अनुभव करें. मानव सभ्यता के विकास में जो जटिलताएं उभर रही हैं, उन्हें व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की चेतना विकसित करने की जरूरत महसूस हो रही है.

दिल्ली की आबादी के सामने कई वर्षो से प्रदूषण सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आया है. हमने मानव जाति के विकास के लिए पर्यावरण के जो ढांचे विकसित किए थे, उन्हें आधुनिक सभ्यता के विकास के रास्तों की बाधा समझ कर समाप्त करते जा रहे हैं. दिल्ली में यमुना को ही यहां की आबादी और उसके विकास के रास्तों ने नाले में बदल डाला है. दिल्ली में पेट्रोल और डीजल से ज्यादा गैस-आधारित वाहनों को प्रचलन में लाने की जरूरत महसूस हुई. उद्योगों को दिल्ली से बाहर किया गया.

लेकिन प्रदूषण के स्तर से दिल्लीवासियों को राहत नहीं मिलती दिख रही है क्योंकि प्रदूषणरहित दिल्ली की चेतना बनाने की तरफ हम आगे ही नहीं बढ़ पा रहे हैं. सो, दिल्ली में रोजी-रोटी से बड़ा मुद्दा प्रदूषण का बढ़ता स्तर है. दुनिया के अनुभव सामने हैं कि आधुनिकता के नाम पर विकसित देशों में पर्यावरण की सुरक्षा एक राजनीतिक मुद्दा बनता है. हरियाली के लिए राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं.

त्योहारों के रूप बदलते रहते हैं. कल पटाखों के बिना भी दिवाली होती थी, और आज हम पटाखों के अत्यधिक इस्तेमाल के दौर वाली दिवाली तक आ पहुंचे हैं. लेकिन दिवाली का महत्त्व तभी है, जब आम जीवन को वह स्वस्थ और खुशहाल रखने में मददगार हो. वैसे भी,  दिवाली को अपेक्षाकृत संपन्न लोगों का पर्व माना जाता है.

लेकिन मुश्किल यह हो गई है कि अपेक्षाकृत संपन्न लोगों को भी आम जन की तरह जीने भर के लिए स्वच्छ वातावरण चाहिए. दिवाली की रात और उसके बाद के कुछ दिनों तक बूढ़े और बच्चों  के हालात का अंदाज नहीं लगाया जा सकता है. बड़ी संख्या में बूढ़े-बुजुर्ग दिल्ली से बाहर चले जाते हैं. रात भर लोगों को शोर-शराबे से ही नहीं बल्कि धुंए और गंध से तड़पते देखा जाता है.

दिवाली का त्योहार कई स्तरों पर बदला है. लेकिन यह बदलाव संपन्नता का तांडव जाहिर करने में ही नहीं होना चाहिए. त्योहार को मनाने वालों को इस पहलू पर भी विचार करना चाहिए कि उन्होंने अपने स्तर से दिवाली में इस्तेमाल होने वाली कुछ वैसी चीजों को छोड़ने का भी कभी कोई फैसला किया है, जिससे कि आम आबादी को राहत मिलती हो.

यदि दिवाली के साथ मिट्टी की जगह दूसरे पदाथरे से निर्मिंत दीये और मूर्तियों के इस्तेमाल को आधुनिकता से जोड़कर देखते हैं, तो पटाखों जैसी चीज को छोड़ना भी आधुनिकता है. समाज में यह चेतना नहीं हो कि उसे समय के अनुकूल उस तरह के व्यवहारों को त्याग देना है, जो समाज को अंदर से कमजोर करता है तो वह समाज अंदर ही अंदर घुटकर समाप्त होने को अभिशप्त होता है.

समाज की चेतना ही उसके लिए सबसे बड़ी संस्था होनी चाहिए. कोर्ट के आदेश के बजाय नागरिकों के स्तर पर ही यह पहल होनी चाहिए कि पटाखों का इस्तेमाल दिवाली या किसी भी ऐसे त्योहार के मौके पर नहीं किया जाना चाहिए. कोर्ट ने अभी भी केवल बिक्री पर रोक लगाई है, लेकिन अब समाज की चेतना के सामने चुनौती है कि इससे आगे बढ़कर पटाखों के इस्तेमाल पर अपने स्तर से रोक लगाए. दिल्ली की कॉलोनियों और झुग्गी-झोपड़ियों के इलाकों में लोगों को कमेटियां गठित करके पटाखों के इस्तेमाल नहीं करने की शपथ लेनी चाहिए. जो स्वच्छता की राजनीति में विश्वास करते हैं, उन्हें ऐसे मौके पर आगे आना चाहिए.

लेकिन हमारे यहां राजनीतिक संकीर्णताएं इतनी हैं कि स्वच्छता को महज झाडू मारने और शौचालय बनाने तक ही सीमित कर देते हैं. पटाखों का इस्तेमाल नहीं करने का अभियान ही वास्तव में आज स्वच्छता की प्राथमिकता होनी चाहिए. पटाखे अब केवल दिवाली में ही इस्तेमाल नहीं किए जाते हैं, बल्कि साल भर में कई मौकों पर उनका इस्तेमाल करने का प्रचलन बढ़ा है.

यह सांस्कृतिक प्रदूषण का भी माध्यम बना है. सांस्कृतिक प्रदूषण वास्तव में सांस्कृतिक आक्रमण होता है, और जो इस बात की परवाह नहीं करता कि उससे किसे किस रूप में नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि अपना वर्चस्व जाहिर करने में ज्यादा यकीन करता है.
ऐसे फैसले आते हैं, तो ऐसी वस्तुओं के  व्यापार और उस पर आश्रित आबादी की आर्थिक भरपाई का सवाल सामने आता है.

बेहद मानवीय सवाल है यह, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. लेकिन बहस इस रूप में खड़ी नहीं की जा सकती कि आबादी के छोटे से हिस्से के जीने के साधनों को बनाए रखने के लिए बड़ी आबादी को बीमार करने की इजाजत दी जा सकती है. पर्यावरण की चेतना विकसित करने का अर्थ ही होता है कि आबादी के उस हिस्से को जीविकोपार्जन के ढांचे में समाहित करे. बड़ी चुनौती सरकार के सामने है कि कितनी कुशलता से पर्यावरण और जीविकोपार्जन के सवालों को एक साथ हल करे.

अनिल चमड़िया


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