परत-दर-परत : जो जहां है, वहीं से लड़ना होगा
कुछ लोग मर कर ही प्रसिद्ध होते हैं. कहने का मतलब यह नहीं है कि कन्नड़ साप्ताहिक ‘लंकेश पत्रिके’ की संपादक गौरी लंकेश, अपनी हत्या के पूर्व, कुछ कम प्रसिद्ध थीं.
परत-दर-परत : जो जहां है, वहीं से लड़ना होगा |
वे उच्च दर्जे की पत्रकार थीं. उनकी हत्या ही इसलिए हुई कि उनकी आवाज में दम था. कोई साधारण पत्रकार होतीं और सरकारी विज्ञापनों के बल पर अपनी पत्रिका चला रही होतीं तो उन्हें कौन पूछता!
ऐसे पत्रकारों की संख्या पूरे भारत को देखें, तो कई लाख हो सकती है, जो सरकारी विज्ञापन के घूरे पर पल रहे हैं. लेकिन गौरी के जीवन का उद्देश्य किसी तरह बने रहना नहीं था. जिस प्रकार की पत्रकारिता वह कर रही थीं, उसे सोद्देश्यपरक पत्रकारिता कहा जाता है. ऐसे पत्रकार ही देश-समाज को आगे ले जाते हैं. मरने के बाद आज गौरी का संदेश देश भर में फैल गया है. कुछ-कुछ इसी अंदाज में कि गोडसे ने गांधी की हत्या कर उन्हें अमर कर दिया. तय है कि जिसने भी उनकी हत्या की होगी, उनके विचारों की वजह से ही की होगी. उनके विचारों के केंद्र में कई महत्त्वपूर्ण बातें थीं : सांप्रदायिकता का विरोध, परंपरा के नाम पर निर्बुद्धिपरकता का विरोध, लोकतंत्र के सिमटते जाने का विरोध, मानव अधिकारों का समर्थन, स्त्री मुक्ति का समर्थन, दबे-कुचले लोगों का समर्थन, युद्ध का विरोध, सभी प्रकार के शोषण और अन्याय का विरोध. इस समय देश में राजनीति की एक प्रबल धारा है, जो इन मानवीय उद्देश्यों के खिलाफ है. स्वाभाविक रूप से गौरी का राजनीति की इस धारा संघर्ष है. यही कारण है कि उनकी हत्या का पहला शक संघ परिवार पर गया.
हो सकता है, हत्या का कारण कुछ और रहा हो पर पुरानी कहावत है कि बद अच्छा बदनाम बुरा. चूंकि संघ के लोग पहले भी प्रगतिशील विचार के लेखकों और शिक्षकों की हत्या करते रहे हैं,और गौरी संघ की विचारधारा के खिलाफ धुआंधार लिखती थीं, इसलिए सबसे पहले इन्हीं लोगों की ओर ध्यान गया. इससे इस हत्या ने एक प्रतीकात्मक अर्थ ले लिया है. यह नहीं कहा जा सकता कि जितने लोगों ने वास्तव में स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था, सिर्फ वे ही अंग्रेजों की गुलामी से स्वाधीनता चाहते थे. उन्हें ऐसे कई गुना अधिक लोगों का समर्थन था, जो आजादी के पक्ष में तो थे, पर उसे हासिल करने की जद्दोजहद में सड़क पर उतरना नहीं चाहते थे. ये मूक समर्थक ब्रिटिश सरकार की मशीनरी में भी थे, चपरासी से ले कर उच्चतम पद तक. बाद में भेद खुला कि नौसेना में भी ऐसे बागी थे, जो भारत को स्वतंत्र देखना चाहते थे. पुलिस विभाग में भी रहे होंगे. भगत सिंह एक थे, पर पता नहीं कितने युवकों के हृदय में भगत सिंह होने की तमन्ना अंगड़ाई ले रही थी. जरा सोचिए, इनमें से आधे भी डर, संकोच या अनिर्णय छोड़ कर स्वाधीनता संघर्ष में कूद गए होते, तो आजादी हमें दस या बीस साल पहले मिल सकती थी. आजादी समय की दुर्निवार मांग थी. एक सीमा तक ही उसे कुचला जा सकता था. भारत बहुत दिनों तक गुलाम नहीं रह सकता था. सवाल यह था कि दस वर्ष पहले या दस वर्ष बाद?
वैसा ही वातावरण आज है. हमारी स्वतंत्रता खतरे में है. सत्य बोलने वाला कहीं भी, कभी भी मारा जा सकता है. बड़े पैमाने पर झूठ की खेती जा रही है. सारे आंकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है. समाज में सांप्रदायिक विभाजन लगभग पूर्ण हो चुका है. बीफ, लव जिहाद, वंदे मातरम् जैसे अनावश्यक और भ्रामक मुद्दे खड़े किए जा रहे हैं. गणोश के हाथी के सिर को वैदिक काल की सर्जरी का नमूना बताया जा रहा है. मृत भाषा संस्कृत को फिर से प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जा रही है. धर्म के नाम पर आडम्बर और पाखंड बढ़ रहा है. यह एक नया भारत है, जो संविधान, राजनैतिक-सामाजिक आदशरे और परंपरा के सर्वश्रेष्ठ से मेल नहीं खाता. गौरी की हत्या इसीलिए हुई क्योंकि यह नया भारत उन्हें मंजूर नहीं था. यह भी स्पष्ट है कि यह अंतिम हत्या नहीं है. भारतीय समाज में जैसे-जैसे वैचारिक संघर्ष तेज होगा; और अधिक लोगों को बलिदान देना होगा. सभ्यता के दुश्मन तर्क-वितर्क की भाषा नहीं समझते. लेकिन अराजकता और विभेदन की यह व्यवस्था बहुत दिनों तक नहीं चल सकती. इसलिए कि इसमें आधुनिक भारत की किसी भी समस्या का समाधान निहित नहीं है. सिवाय यथास्थितिवादियों के किसी को नहीं लग रहा है कि भारत का भविष्य उज्ज्वल है, बल्कि उद्योग, उत्पादन, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी क्षेत्रों में गिरावट नजर आ रही है. अत: देश को जल्द ही नई दिशा में टर्न लेना होगा. यह वही दिशा नहीं हो सकती, जो पहले थी. उस पर गंभीर पुनर्विचार करना होगा. उसका बेहतर संस्करण विकसित करना होगा.
सवाल है कि यह टर्न कब आएगा? जाहिर है कि खुद से तो नहीं ही आएगा. दस-बीस लेखकों, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं के प्रयास से भी नहीं आएगा. यह जगन्नाथ का रथ है, जो हजारों हाथों से खींचा जाता है. इसलिए जो जहां है, उसे वहीं से लड़ना होगा. इस संघर्ष में मौन के लिए कोई जगह नहीं है. सुबह कब होती है, यह इस पर निर्भर है कि कितने लोग अपना डर, अनिर्णय और संकोच का त्याग कर इस वैचारिक संघर्ष में शामिल होने का साहस दिखाते हैं.
| Tweet |