प्रसंगवश : आज का धर्म संकट
‘धर्म’ क्या है? समझना मुश्किल है. गीता में कहा गया है कि धर्म का तत्व ‘गुहा (यानी किसी गोपनीय स्थान) में छिपा हुआ है’ और आसानी से उस तक नहीं पहुंचा जा सकता.
प्रसंगवश : आज का धर्म संकट |
ऐसे ही ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ के बीच फर्क करना भी उलझन में डालने वाली चुनौती है क्योंकि एक ही कार्य कभी धर्म तो कभी अधर्म कहलाने लगता है, इसलिए पढ़े-लिखे विद्वान भी चक्कर में आ जाते हैं. आज इस धर्म के साथ पाखंड इस कदर जुड़ गया है कि अपना मार्ग चुनना मुश्किल हो रहा है. धर्म की दुकानदारी परवान चढ़ रही है क्योंकि लोग अपनी मुश्किल से पार पाना चाहते हैं. आज इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक बीतते बीतते भी गंडा-ताबीज, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ, जप-तप, भूत-भभूत, टोने-टोटके यहां तक कि नर-बलि तक के लिए भी लोग आमादा हैं.
इस तरह आध्यात्मिक माध्यम से भौतिक उपलब्धि पाने की ख्वाहिश पूरी की जाती है. चूंकि तरकीब आध्यात्मिक (अर्थात अभौतिक!) है, इसलिए उसके लिए भौतिक दुनिया के कार्य-कारण वाला फार्मूला लागू नहीं होता है, और ये सभी हरकतें विचार और तर्क की परिधि में नहीं आती हैं. ‘शार्ट कट’ से कार्य-सिद्धि का नुस्खा जरूर पेश करती हैं. इनकी (अदृश्य) कल्पित दुनिया में विश्वास, आस्था, श्रद्धा और निष्ठा के सिक्के चलते हैं. अपने पर, अपनी शक्ति पर भरोसा न कर दैव या भाग्य पर भरोसा करने वाली बढ़ती जा रही भारी भीड़ को देख समाज की वर्तमान मन:स्थिति चिंता का कारण बनती जा रही है. ऐसे वैचारिक अंधेरे वाले समय में स्वामी विवेकानंद का स्मरण रोशनी की एक किरण-सा लगता है.
लोकप्रसिद्ध है कि युवा संन्यासी विवेकानंद ने लगभग सवा सौ साल पहले 1893 के ग्यारह सितम्बर के दिन अमेरिका के शिकागो नगर में विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से पूरे विश्व का आह्वान किया था. मनुष्यता के सजीव धर्म का शंखनाद किया था. अद्वैत वेदान्त के इस परिव्राजक ने धर्म को मानव-सेवा से जोड़ा क्योंकि सब में ईश्वर ही प्रतिष्ठित है. देश-समाज को समर्पित स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र और मानव विकास पर ध्यान देकर स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया. पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद और कर्मकांड पर तीव्र खंडन किया और सभी प्राणियों में परमेर की उपस्थिति स्वीकार की. अपनी ओजस्वी वाक् क्षमता से देश और विदेश, सर्वत्र लोगों को प्रेरित किया. अपने स्वभाव को पहचान कर मुक्त रहने और अभय की भावना के साथ श्रेष्ठ कर्म के मार्ग पर चलने को कहा. कहते थे ‘सबल बनो, किसी से आशा न करो, शांत मन और धीरता के साथ आगे बढ़ो’. वे साहस का संचार करते हुए आशा बंधाते हैं, कि ‘छोटी शुरु आत से डरने की जरूरत नहीं होती’ न किसी तरह की चिंता करनी चाहिए. उतावली में रहने वाले लोगों से कहते हैं, ‘किसी की और किसी चीज के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए. वीर की भांति आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि सफलता एक दिन में नहीं मिलती उसके लिए धैर्य और लगातार प्रयास की जरूरत पड़ती है’. पर स्वामी जी ऊंचे लक्ष्य के लिए आह्वान करते हैं. कहते हैं कि ‘दृष्टि ऊंचे शिखर पर होनी चाहिए’. हां, लक्ष्य के लिए मनुष्य में ‘तत्परता, संलग्नता और तन्मयता होनी चाहिए’. ऐसे व्यक्ति को लक्ष्य पाने से कोई नहीं रोक सकता. स्वामी जी कहते हैं कि ‘कोई भी महान कार्य प्रेम, सत्य, निष्ठा, ऊर्जा से ही संभव हो पाता है’.
स्वामी जी कहते हैं कि ‘अपने में विश्वास रखो. उस पर दृढ़ निश्चय से खड़े रहो. अदम्य विश्वास और शक्ति ही सफलता का रहस्य है’. उनके अनुसार जीवन यात्रा में ‘बलवान बन कर, आदर्श को सेवा भाव से अपनाना होगा’. उनका दृढ़ विश्वास है कि ‘हर व्यक्ति असीम ऊर्जा, असीम शक्ति और असीम ज्ञान का भंडार होता है और वह कुछ भी बन सकता है’. जरूरत है कि व्यक्ति अपने विश्वास पर अडिग टिका रहे क्योंकि ‘असंभव कुछ भी नहीं होता है’. सफलता का सूत्र बताते हुए स्वामी जी कहते हैं : ‘एक विचार लो. उस एक विचार को अपना जीवन बना लो . उसी के बारे में सोचो, सपने देखो, उसी पर जियो, पूरा शरीर उसका पोर-पोर उसी विचार से जुड़ जाए-एकाकार हो जाए’. हम जो कुछ भी हैं, उसके लिए स्वयं उत्तरदायी हैं, और उसके लिए भी जो हम भविष्य में होना चाहते हैं. जो हम होना चाहते हैं, वह हमारी शक्ति और पहले किए कार्यों पर निर्भर करता है. हम वही हैं, जो हमारे विचार बनाते हैं’. युवा भारतीय समाज को इसी तरह के आह्वान की आवश्यकता है. उनके विचार आज भी ऊर्जा के सोत हैं. उन्हें सुनने और गुनने की जरूरत है.
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