वैश्विकी : मोदी की म्यांमार यात्रा और रोहिंग्या

Last Updated 10 Sep 2017 05:59:25 AM IST

चीन में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की म्यांमार यात्रा ने दोनों देशों की पुरानी दोस्ती को नया आधार दिया है.


वैश्विकी : मोदी की म्यांमार यात्रा और रोहिंग्या

हालांकि मोदी की इस यात्रा से यह रेखांकित हुआ है कि नई दिल्ली जब भी अपने पड़ोसी देशों की ओर रुख करती है, तो उसे अपने रणनीतिक हितों और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन कायम करने के लिए जद्दोजहद करना पड़ता है. मोदी की यह यात्रा उस समय हुई जब म्यांमार रोहिंग्या संकट से जूझ रहा है और इससे निपटने के तरीकों को लेकर म्यांमार सरकार और स्टेट काउंसलर आंग सान सू की को वैश्विक आलोचना झेलनी पड़ रही है. म्यांमार के लिए रोहिंग्या संकट नया नहीं है. लेकिन मौजूदा संकट का आयाम बड़ा और ज्यादा गहरा है. लिहाजा, विश्व शांति के नोबेल पुरस्कार से नवाजी गई सू की की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है. भारत रोहिंग्या मामले को म्यांमार का आंतरिक मामला मानता रहा है. लिहाजा, प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के दौरान वह रोहिंग्या समुदाय के साथ सरकार के रुख और रवैये के मुद्दे से अपने को उलझाना नहीं चाहते थे. लेकिन जब म्यांमार सरकार की व्यापक आलोचना होने लगी तब भारत ने सू की का समर्थन कर दिया. इस अर्थ में प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा का भू-राजनीतिक और सुरक्षा हित, दोनों दृष्टि से विशेष महत्त्व का माना जा रहा है.
भारत और म्यांमार के सुरक्षा हित परस्पर जुड़े हुए हैं. इसलिए जाहिर है कि म्यांमार सुरक्षा की दृष्टि से जो भी कदम उठाएगा, उससे भारत प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता. इन दिनों म्यांमार के राखिन सूबे में रोहिंग्या समुदाय और सुरक्षा बलों के बीच जो संघर्ष छिड़ा हुआ है, उससे भारत भी प्रभावित होने लगा है. पाकिस्तान, सऊदी अरब और तुर्की जैसे मुस्लिम देश इस मसले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठा रहे हैं. भारत के मुस्लिम संगठन और कुछ गैर-सरकारी संगठन दबाव डाल रहे हैं. इसी दौरान भारत सरकार ने भी यहां शरण लिए हुए करीब चालीस हजार रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार वापस भेजने का निर्णय लिया है. यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है.

दरअसल, म्यांमार प्रधानमंत्री मोदी की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ का हृदय स्थल है. वह त्रिदेशीय-भारत-म्यांमार और थाइलैंड उच्च मार्ग के जरिए पूर्वी एशियाई देशों के साथ संपर्क बढ़ाना चाहते हैं. यह दीगर है कि अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह  परियोजना भी अपनी सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रही है. लेकिन भारत की सबसे बड़ी चिंता का कारण चीन है, जो म्यांमार को भी नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव जैसे दक्षिण एशियाई  देशों की  तरह अनुदान-कूटनीति के जरिए के जरिए अपने प्रभाव में ले रखा है. चीन को टक्कर देना भारत के लिए मुश्किल है, क्योंकि वह हथियारों से लेकर खाद्यान्न तक की आपूर्ति कर रहा है. इसलिए यदि भारत को म्यांमार में अपने भू-राजनीतिक और सुरक्षा हितों को आगे बढ़ाना है तो वहां आधारभूत ढांचा संपर्क योजनाओं को तेजी से विकसित करना होगा. पूर्वोत्तर में नगालैंड विद्रोहियों की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए भी म्यांमार से रणनीतिक साझेदारी बढ़ाने पर जोर देना होगा. मोदी की यात्रा के दौरान कुछ समझौते भी हुए हैं. उम्मीद है कि दोनों देश करीबी साझेदार के रूप में काम करेंगे.

डॉ. दिलीप चौबे
लेखक


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