नजरिया : अभी भी है इंसाफ का इंतजार

Last Updated 10 Sep 2017 06:04:15 AM IST

मायानगरी मुंबई में हुए सीरियल ब्लास्ट के 24 साल बीत चुके हैं. 12 मार्च 1993 को 12 जगहों पर एक के बाद एक हुए इन धमाकों में 257 लोगों की मौत हुई थी.


नजरिया : अभी भी है इंसाफ का इंतजार

700 से ज्यादा लोग घायल हुए थे और 27 करोड़ की संपत्ति सुपुर्दे खाक हो गई थी. इस भयावह कांड पर फैसला 6 सितम्बर, 2017 को आया. अगर अबू सलेम और उसके एक साथी को उम्रकैद और दो साथियों-ताहिर मच्रेट और फिरोज अब्दुल राशिद को फांसी की सजा एवं एक अन्य को 10 साल की सजा का अपडेट ले लें तो अब तक इस मामले में 14 लोगों को फांसी और 90 लोगों को उम्रकैद हो चुकी है. इसके अलावा, संजय दत्त अपने पास एके-56 रखने के मामले में सजा काटकर निकल चुके हैं और याकूब मेमन को फांसी दी जा चुकी है. बावजूद इसके सवाल है कि क्या इन सजाओं से न्याय प्रतिष्ठित हुआ है? न्याय की प्रतिष्ठा इस बात से होती है कि गुनहगार को सजा मिले, वक्त पर सजा मिले और सजा पर अमल भी उसी हिसाब से हो.

बम ब्लास्ट केस इस बात का बड़ा उदाहरण है कि देर से मिला न्याय दरअसल अन्याय होता है. पीड़ितों को न्याय तो मिल गया, लेकिन काफी देर से. इस दौरान पीढ़ियां बदल गई. मुजरिमों के लिए सजा के सपने देखने वाली कई आंखें तो अदालत के इस ऐतिहासिक फैसले से पहले ही बंद हो गई. मुकदमे के दौरान लंबी कानूनी प्रक्रिया ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ यानी न्याय में देरी, क्या न्याय न होने जैसा है. इस मामले में जो दो दर्जन लोग निर्दोष साबित हुए, वे 22 से 24 साल तक गुनाह का बोझ लेकर जिन्दगी जीने को अभिशप्त रहे. उन दो विचाराधीन कैदियों को खुशनसीब ही कहेंगे जो गुनहगार या निर्दोष साबित हुए बिना ही दुनिया से रु खसत हो गए. घटना के 24 साल बाद गुनहगार को सजा-ए-मौत से न पीड़ित परिवार को सुकून मिलता है, न बूढ़ी हो चुकी पीढ़ी को कोई सबक.

सबक तो मुंबई में 26/11 अटैक के मामले में भी नहीं मिलता दिखा, जिसमें घटना के महज चार साल बाद ही कसाब को फांसी हुई. 26 नवम्बर 2008 को पाकिस्तान से समुद्री रास्ते से आए 10 हमलावरों में कसाब इकलौता जिन्दा पकड़ा गया आतंकी था. नाबालिग तो वह खुद को साबित नहीं कर पाया, लेकिन एक बात पक्की थी कि वह इस घटना का मोहरा भर था जिसमें 166 लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए. इस मामले में 23 जून 2009 को हाफिज सईद, जकीर-उर-रहमान लखवी समेत 22 लोगों के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया गया.
मुंबई का सीरियल ब्लास्ट हो या 26/11 का टेरर अटैक इनमें जिन्हें सजा मिली, वह बस मोहरा थे. इन मामलों में यह जुमला भी पुख्ता होता नहीं दिखा कि कानून की जद से कोई बच नहीं सकता. दाऊद इब्राहिम, हाफिज सईद, लखवी जैसे मास्टर माइंड आज तक कानून की जद से दूर हैं. ये लोग न सिर्फ  कानून की पकड़ से दूर हैं बल्कि पाकिस्तान और चीन की मदद से ये खुलेआम पाकिस्तान में भारत विरोधी गतिविधियों को अंजाम देते रहे हैं. ऐसे में मुंबई अटैक का दर्द और बढ़ जाता है. फांसी पा चुका कसाब भी बेचारा नजर आता है. कठपुतलियों का गला काटकर भी कोई बदला पूरा नहीं होता, कोई न्याय स्थापित नहीं होता और न ही किसी को सुकून मिलता है.

मुंबई सीरियल ब्लास्ट कांड हो या फिर 26/11 की घटना-ये ऐसी घटनाएं नहीं थीं, जिनमें पीड़ितों के साथ गुनहगारों की कोई निजी दुश्मनी थी. उन्हें देश के दुश्मनों का साथ मिला हुआ था. इन मामलों में न्याय हुआ, ऐसा तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि उन देश के दुश्मनों को सजा नहीं दी जाती. सच तो ये है कि पाकिस्तान में छिपे इन आतंक के सरगनाओं को लगातार पाकिस्तानी हुक्मरानों की सरपरस्ती हासिल रही है. इसलिए सजा देने दिलाने का मसला राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हो जाता है. न्याय व्यवस्था जिस देश के आधारभूत स्तम्भों में से एक है, उसे साथ देने के लिए कार्यपालिका और विधायिका समेत देश के राष्ट्रपति का साथ भी जरूरी हो जाता है. मुम्बई सीरियल धमाके में न्याय केवल अपने देश के नागरिकों का गुनाह पकड़कर उन्हें सजा देने भर से पूरा नहीं होता. ये पेशेवर लोग जिन कद्दावर देश के दुश्मनों की कठपुतलियां थे, उन्हें सजा देने की जरूरत आज भी महसूस होती है. इसके बिना न उस पीढ़ी की आत्मा को शांति मिलेगी, जो गुजर गई और न उन लोगों को सुकून मिलेगा, जो ऐसी तमन्ना लिए जी रहे हैं.

चाहे अबू सलेम हो या फिर याकूब मेमन जैसे लोग, ये गद्दार निकले. मगर, मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट को प्लान किसने किया? ये लोग तो उसे अंजाम तक पहुंचाने वाले गिरोह का हिस्सा भर थे. असली गुनहगार तो अब भी पाकिस्तान की सरपरस्ती में चैन की बंसी बजा रहे हैं. लेकिन दोष अदालत का नहीं, प्रशासन, खुफिया विभाग और सरकार का है जो असली मुजरिम को अदालत की चौखट तक ला पाने में विफल रहे. अदालत को अगर इनका सक्रिय समर्थन और ठोस सहयोग मिला होता, तो आज इंसाफ की तस्वीर ही कुछ और होती.

इसी साल, जनवरी की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश भर की जिला अदालतों में 2 करोड़ 80 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. इन अदालतों में 5,000 के करीब न्यायिक अधिकारियों की कमी है. सर्वोच्च न्यायालय की दो रिपोटरे में न्यायिक अधिकारियों की इस संख्या में कम से कम सात गुना इजाफा किए जाने की सिफारिश की गई है. लक्ष्य यह है कि अगले कुछ सालों में 15,000 से ज्यादा न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाए. ये सिफारिशें ‘भारतीय न्यायपालिका वार्षिक रिपोर्ट 2015-16’ और ‘भारत की अधीनस्थ अदालतें : न्याय तक पहुंच पर रिपोर्ट 2016’ में की गई हैं. इन सिफारिशों में लंबित मुकदमों की संख्या और फैसलों में देरी पर चिंता जताई गई है. रिपोर्ट में उल्लेख है कि 1 जुलाई 2015 से 30 जून 2016 के बीच एक साल में 2,81,25,066 दीवानी और आपराधिक मामले लंबित हो गए.

 एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार निचली अदालतों में करीब 5000 और उच्च न्यायालयों में करीब 45 प्रतिशत जजों के पद खाली हैं. न्याय की धीमी प्रक्रिया का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि छन कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने वाले मामलों की संख्या 62,000 से ज्यादा हैं. इनमें 80 प्रतिशत से ज्यादा मामले तो 10 साल से ज्यादा समय से लंबित हैं. हाल ही में पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि लंबित मुकदमों को निपटाने के लिए 70 हजार जजों की आवश्यकता है, जबकि इनकी संख्या देश भर में महज 18 हजार ही हैं. ऐसे में, अचरज की बात नहीं कि मुंबई ब्लास्ट के पीड़ितों को न्याय के लिए चौथाई शताब्दी तक इंतजार करना पड़ा.

उपेन्द्र राय
‘तहलका’ के सीईओ व एडिटर इन चीफ


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