परत-दर-परत : ऐसा क्या कह दिया हामिद अंसारी ने!

Last Updated 13 Aug 2017 04:48:08 AM IST

अगर आप मुसलमान हैं, और भारत में रहते हैं, तो निश्चित है कि आप व्यंग्य और उपहास का पात्र होंगे.


ऐसा क्या कह दिया हामिद अंसारी ने!

सामने नहीं, तो पीछे. कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस पद पर हैं, या किस पद से अभी-अभी सेवानिवृत्त हुए हैं. दस वर्ष तक उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी पर तंज किया जा रहा है कि बड़े संवैधानिक पद पर रहते हुए भी वे मुसलमान के मुसलमान ही रहे. क्यों? क्योंकि उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि भारत में मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. मजे की बात यह कि उन्होंने यह बात अपनी ओर से नहीं कही, इंटरव्यू कर रहे करन थापर के इस प्रश्न के जवाब में कही कि क्या भारत में मुसलमान डरे हुए हैं?
थापर को एक मुसलमान उपराष्ट्रपति से यह प्रश्न पूछना चाहिए था या नहीं, यह बहसतलब हो सकता है, लेकिन उपराष्ट्रपति ने जो जवाब दिया, उसके औचित्य पर शंका नहीं की जा सकती. क्योंकि कल्पना नहीं, यह सच है. सवाल उठता है, हामिद अंसारी मुसलमान हैं, इसलिए क्या उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहिए था?  क्या उनका यह कहना ज्यादा मुनासिब होता कि माफ कीजिए, इस प्रश्न का उत्तर देना मुझे शोभा नहीं देता क्योंकि मैं उपराष्ट्रपति हूं? मैं समझता हूं कि यह शालीनता की परिभाषा नहीं है. शालीनता का संबंध सत्य को छिपाने से नहीं है, सत्य को शालीनता से व्यक्त करने से है. कौन इनकार कर सकता है कि जब से केंद्र में नई सरकार आई है, लगातार माहौल बनाया जा रहा है कि मुसलमान देश में वांछित नहीं हैं. स्तब्ध कर देने वाली बात तब हुई तब उत्तर प्रदेश के असेंबली चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, जिसका संसद में बहुमत है, ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया. यह संकेत सिर्फ  इस ओर नहीं था कि भाजपा में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है, बल्कि इस ओर भी था कि भारत में मुसलमानों के लिए जगह नहीं है.

इसमें क्या शक है कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर लड़ा गया था, जिस वजह से भाजपा को अभूतपूर्व सफलता मिली. गोरक्षा के नाम पर कितने मुसलमानों को मारा गया और कितनों के साथ हिंसा हुई, यह सभी के सामने है. हामिद अंसारी ने इसकी शिकायत भी नहीं की है. सिर्फ  हामी भरी है कि भारत के मुसलमानों में भय व्याप्त है. ऐसा कह कर उन्होंने किस संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन किया है? समय पीछे छूट गया जब धर्म आदमी की पहचान का आधार माना जाता था. आज नागरिकता और मनुष्यता ही मुख्य पहचान है. दुनिया के किसी भी सभ्य देश में धर्म/संप्रदाय के आधार पर भेदभाव करने पर कानूनी रोक है. भारत का संविधान भी इस सेक्युलर भावना को मान्यता देता है. यह मनुष्य की सीमा है कि उसमें सामाजिक समानता का यह भाव अभी तक दृढ़ नहीं हुआ है.
अत: व्यवहार में हिंदू हिंदू रहता है, और मुसलमान मुसलमान. हिंदू और मुसलमान के बीच शादी नहीं होती, मुसलमानों को नौकरी नहीं दी जाती, यहां तक कि किराये का घर भी नहीं मिलता. इसका अर्थ यह है कि ऐतिहासिक कारणों से हिंदू-मुसलमान के बीच जो दूरियां पैदा हुई, वे अभी मिटी नहीं हैं. लेकिन ज्यादा अफसोस की बात यह है कि इन दूरियों को कम करने के बजाय बढ़ाने की सुनियोजित कोशिश की जा रही है. शिक्षा का काम आदमी को मुक्त करना है. पर शिक्षा के ही क्षेत्र में सब से ज्यादा उथल-पुथल है. कहीं हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर को पराजित बताया जा रहा है, तो कहीं इतिहास की पाठ्य पुस्तकों से मुगलकाल को ही हटाया जा रहा है. रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों के नाम बदले जा रहे हैं. ऐसे वातावरण में हिंदू-मुसलमान की चर्चा से कैसे बचा जा सकता है? चुनाव के दिनों में इसकी चर्चा सबसे ज्यादा होती है, जब विश्लेषणों में बताया जाता है कि किस चुनाव क्षेत्र में मुस्लिम वोट कितना है. मुसलमान की ओर संकेत करने के लिए पहले अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया जाता था. अब साफ-साफ हिंदू-मुसलमान की बात की जा रही है. लगता है कि विभाजन के पहले के दिन लौट आए हैं. हवा में सांप्रदायिकता का जहर घुला हुआ है. ऐसे में हामिद साहब से शिकायत सिर्फ  उन्हें ही हो सकती है, जो मानते हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, और अन्य समुदाय यहां तभी रह सकते हैं, जब हिंदुओं के वर्चस्व को स्वीकार करके चलें.
कहा जा रहा है कि हामिद अंसारी ने भारत को दुनिया भर में बदनाम करने की कोशिश की है. कभी सत्यजित राय के बारे में भी यही कहा जाता था कि अपनी फिल्मों में भारत की गरीबी का चितण्रकर उसे दुनिया की निगाहों में गिरा रहे हैं. शुतुर्मुर्ग का स्वभाव और क्या होता है? जब उस पर कोई खतरा आता है, तो वह बालू में अपना सिर छिपा लेता है. हम भारतीयों का भी यही स्वभाव रहा है. अपनी समस्याओं को स्वीकार करना नहीं चाहते. सो, उनका समाधान निकालने की कोशिश नहीं करते. दुर्भाग्य से जो अपने को हिंदुओं का खैरख्वाह मानते हैं, उनकी नजर भी हिंदू समाज की समस्याओं की ओर नहीं जाती. उन्हें सारी कमी मुस्लिम समाज में ही दिखाई देती है. अगर दुख करना है, तो इस पर किया जाना चाहिए कि जो बात देश के प्रधानमंत्री को कहनी चाहिए थी, वह उपराष्ट्रपति की वाणी से फूट पड़ी.

राजकिशोर
लेखक


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment