शिक्षकों पर क्यों लटकी तलवार?
पूरे देश में कक्षा एक से आठ तक के शिक्षक इन दिनों भारी मानसिक दबाव झेल रहे हैं। कारण है सुप्रीम कोर्ट का वह आदेश जिसमें शिक्षकों को शिक्षक पात्रता परीक्षा यानी टीईटी पास करने का आदेश दिया गया है।
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टीईटी के संबंध में माननीय सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपनी जगह सही हो सकता हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में नियम और कानून के हिसाब से अपना फैसला दिया है। सवाल यह है कि क्या यह फैसला व्यावहारिक है ? सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपना फैसला दे दिया है लेकिन देश की संसद क्या कर रही है ? इस मुद्दे पर राजनेता चुप क्यों हैं ? जो शिक्षक पचास या पचपन वर्ष के हो चुके हैं क्या उनके लिए यह फैसला व्यावहारिक है?
पिछले कुछ समय से केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें शिक्षकों पर विभिन्न तरह के दबाव डाल रही हैं। शिक्षा प्रदान करने के अलावा शिक्षकों से हजार काम लिए जा रहे हैं, इसके बावजूद शिक्षकों को पापी सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि अब कक्षा एक से लेकर कक्षा आठ तक पढ़ाने वाले सभी शिक्षकों को टीईटी पास करना अनिवार्य होगा। जिन शिक्षकों की सेवा में पांच साल से अधिक का समय बाकी है, उन्हें दो साल के भीतर टीईटी पास करना होगा।
अगर वे इस अवधि में परीक्षा पास नहीं कर पाते हैं तो उन्हें सेवा छोड़नी पड़ेगी या अनिवार्य सेवानिवृत्ति लेनी होगी। हालांकि जिनकी सेवा अवधि पांच साल से कम है उन्हें टीईटी पास करने की बाध्यता नहीं है लेकिन वे प्रमोशन के लिए अयोग्य रहेंगे। यह नियम सरकारी और निजी दोनों शिक्षकों पर लागू होगा। हालांकि फिलहाल अल्पसंख्यक विद्यालयों को इससे छूट दी गई है। इस मुद्दे पर अल्पसंख्यक वाले मामले को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच को सौंपा गया है। खबर है कि फैसले का सख्ती से पालन कराया जाएगा।
शिक्षकों का कहना है कि पहले जो शिक्षक नियुक्त हुए थे, उनकी भर्ती उस समय के नियम और मानकों के हिसाब से हुई थी। अब सेवा के आखिरी वर्षों में उनसे टीईटी पास करने को कहना न्यायसंगत नहीं है। दरअसल पचास-पचपन की उम्र के बाद इंसान कई तरह के मनोवैज्ञानिक दबाव झेल रहा होता है। इस उम्र में वह पढ़ा तो सकता है लेकिन अगर उससे कहा जाएगा कि आप परीक्षा पास कीजिए नहीं तो आपकी नौकरी चली जाएगी तो उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव और बढ़ जाएगा।
यही कारण है सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शिक्षक परेशान है। शिक्षकों के लिए समय-समय पर कई तरह की रिफ्रेशर कोर्स चलते रहते हैं। बेहतर होता कि सरकार शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षण देती। इस तरह का अव्यावहारिक फैसला शिक्षकों पर थोपना उनके साथ अन्याय है। टीईटी के संबंध में यह फैसला कई तरह से व्यावहारिक नहीं है। स्कूलों में बड़ी संख्या में बीएड, बीपीएड, इंटरमीडिएट पास तथा बीटीसी मुक्त शिक्षक हैं।
कई शिक्षक मृतक आश्रित कोटे में भी भर्ती हुए हैं। शिक्षकों की भर्ती के मानक अलग अलग समय पर अलग अलग रहे। जैसे उत्तर प्रदेश में 1898 से पहले बारहवी पास और बीटीसी के आधार पर भर्ती हुई। 1999 से इसे स्नातक किया गया, इसमें कुछ बीएड और बीपीएड लोग भी आए। यानी उस समय जो मानक थे उसी के आधार पर शिक्षकों की भर्ती हुई। एक व्यावहारिक दिक्कत यह है कि अगर कोई बारहवी पास शिक्षक टीईटी पास करना चाहे तो उसे पहले स्नातक की परीक्षा पास करनी होगी और फिर बीटीसी का प्रशिक्षण लेना होगा, तब जाकर वह टीईटी कर पाएगा। यानी इसमें काफी साल लग जाएंगे। जबकि टीईटी पास करने के लिए सिर्फ दो साल का समय दिया गया है।
शायद ही किसी नौकरी में मानक इतनी बार बदले गए हों जितनी बार शिक्षकों की भर्ती में बदले गए हैं। सरकार द्वारा शिक्षकों पर समय-समय पर कई तरह के दबाव बनाए जाते हैं। समाज के कुछ लोग भी यह प्रदर्शित करने से पीछे नहीं हटते कि शिक्षक तो फ्री का वेतन ले रहे हैं। ऐसे लोग इस बात को भूल जाते हैं कि शिक्षकों को गांव-गांव मंप धूप, बारिश और बाढ़ में भी काम पर लगा दिया जाता है। अगर स्कूल में बच्चे नहीं आते हैं तो उसमें भी शिक्षकों की गलती निकाल दी जाती है। सवाल यह है कि जानबूझकर शिक्षकों का शोषण करने की कोशिश क्यों की जा रही है ? अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस मामले में आशा की एक किरण दिखाई है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर उत्तर प्रदेश में शिक्षकों के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा यानी टीईटी की अनिवार्यता पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की गई है। इसके साथ ही योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि प्रदेश के शिक्षक अनुभवी हैं और समय-समय पर उन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। ऐसे में उनकी योग्यता और सेवा को नजरअंदाज करना उचित नहीं है। हिमाचल प्रदेश में भी शिक्षकों ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री और केन्द्रीय शिक्षा मंत्री को ज्ञापन भेजा है। हिमाचल प्रदेश सरकार भी इस मुद्दे पर पुनर्विचार याचिका दाखिल करने जा रही है।
देश के कई अन्य राज्यों में भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शिक्षकों में नाराजगी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि शिक्षक भर्ती प्रक्रियाओं में समय-समय पर कई तरह की असमानताएं रही हैं। इन असमानताओं को किसी एक नियम से दूर नहीं किया जा सकता है। शिक्षकों की भर्ती किसी अनुकंपा के आधार पर नहीं की गई है। नियम और कानून के अनुसार ही की गई है। इसलिए अब शिक्षकों पर इस नियम को लादना उसके साथ अन्याय होगा। इस समय शिक्षकों की नौकरी बचाने और उन्हें मानसिक तनाव से बचाने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को गंभीर पहल करनी चाहिए।
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