बिहार चुनाव : बिहार का रण.. मुस्लिम बहुल सीटों पर कमल खिलाने की चाह
बिहार में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। चुनाव आयोग ने मतदान की तारीखों की घोषणा कर दी है—6 और 11 नवंबर को मतदान होगा, और नतीजे 14 नवंबर को आएंगे।
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यह चुनाव केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए विशेष महत्व रखता है। उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को दो-तिहाई बहुमत के साथ विजयी बनाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए भाजपा कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। शाह का दावा है कि राजग न केवल पूर्ण बहुमत के साथ बिहार में सरकार बनाएगा, बल्कि घुसपैठियों को राज्य की पवित्र धरती से बाहर भी करेगा।
सीमांचल पर विशेष ध्यान : अमित शाह का फोकस इस बार सीमांचल (पूर्वोत्तर बिहार) के नौ जिलों पर है, जहां उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं की एक बड़ी टीम तैनात की है। उनकी रणनीति साफ है राजद और एमआईएम के गढ़ में कमल खिलाना। 243 सीटों वाली बिहार विधानसभा में राजग के लिए 160 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखा गया है। सीमांचल में घुसपैठ को मुख्य मुद्दा बनाया जा रहा है, जहां मुस्लिम आबादी काफी है और घुसपैठ हिंदुओं के लिए समस्या बनी हुई है। हाल के वषोर्ं में इस क्षेत्र में हिंदू पवोर्ं और त्योहारों पर पथराव और हिंसा की घटनाएं सामने आई हैं, जिसे शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गंभीरता से लिया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से अपने भाषण में घुसपैठियों के वोटर लिस्ट में शामिल होने के मुद्दे को उठाया था। शाह और मोदी ने कांग्रेस की मतदाता अधिकार यात्रा के जवाब में घुसपैठियों के मताधिकार को मुद्दा बनाया है। चुनाव आयोग के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बाद लगभग 45 लाख पुराने मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटाए गए हैं।
भाजपा के तरकश में कई तीर : भाजपा केवल घुसपैठ के मुद्दे पर निर्भर नहीं है। अयोध्या में राम मंदिर के बाद बिहार में मां जानकी मंदिर का निर्माण, मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 75 लाख महिलाओं को 10,000 पये का वितरण, और अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधार जैसे मुद्दे भी अभियान का हिस्सा हैं। यह चुनाव भाजपा और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी के लिए सामान्य नहीं है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मोचोर्ं पर चुनौतियों के बीच यह चुनाव राजग के लिए बड़ी परीक्षा है। ऑपरेशन सिंदूर की सफलता और वैश्विक दबावों का सामना करने की सरकार की दृढ़ता ने भारत को गर्व का विषय बनाया है। सवाल यह है कि क्या मोदी बिहार के मतदाताओं पर अपना जादू चला पाएंगे?
मोदी और शाह का बिहार में दबदबा: बिहार में भले ही राजग के बैनर तले चुनाव लड़ा जा रहा हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि यह मोदी और शाह का चुनाव है। 2014 से अब तक भाजपा का सफर मोदी युग के नाम से जाना जाता है। यह केवल इसलिए नहीं कि भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ है, बल्कि इसलिए भी कि विश्व ने भारत को मोदी के भारत के रूप में देखना शुरू किया है। मोदी का व्यक्तित्व मेहनत, कुशल टीम और ठोस नियोजन का परिणाम है। 75 वर्ष की आयु में भी वह अपनी रणनीतिक समझ और संगठनात्मक कौशल से सबको प्रभावित करते हैं।
मोदी ने विश्वास निर्माण का अनूठा प्रयोग किया है। 1985-1990 के बीच गुजरात में भाजपा के लिए काम करते हुए उन्होंने और अमित शाह ने पहली बार अपनी जोड़ी का कमाल दिखाया। तब से शाह हर चुनाव में मोदी की जीत के शिल्पकार बने हैं।
बिहार में शाह की रणनीति : बिहार में एक बार फिर अमित शाह की संगठनात्मक क्षमता की परीक्षा है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों में उनकी रणनीति की सफलता देखी जा चुकी है। बिहार में भी वह सोशल इंजीनियरिंग पर जोर दे रहे हैं, जिसमें जातिगत समीकरणों को साधना शामिल है। नए चेहरों को पार्टी से जोड़ा जा रहा है, और मुद्दों व नारों को अंतिम रूप दे दिया गया है। ऑपरेशन सिंदूर, पाकिस्तान को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करना, और देशव्यापी जाति सर्वेक्षण जैसे मुद्दे जोर-शोर से उठाए जाएंगे।
भाजपा ने 40 पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की है, जिसमें धमेर्ंद्र प्रधान प्रभारी हैं और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी शामिल हैं। मंदिर और मंडल दोनों मुद्दों को साथ लेकर चलने में शाह की विसनीयता स्थापित है। अमित शाह की संगठनात्मक क्षमता और नरेंद्र मोदी की रणनीतिक समझ बिहार में राजग की जीत की कुंजी है। गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक शाह ने संगठन को मजबूत करने का काम किया है। बिहार में क्या वह हरियाणा की सफलता को दोहरा पाएंगे? यह समय बताएगा।
(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
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