प्रसंगवश : सन बयालीस की याद

Last Updated 13 Aug 2017 04:42:51 AM IST

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1942 का विशेष महत्त्व है. यह एक ऐसा मोड़ साबित हुआ जिसने परतंत्र भारत की राजनीति की धारा ही बदल दी.


प्रसंगवश : सन बयालीस की याद

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध का आरंभ हो चुका था. भारत अंग्रेजों को जर्मनी के विरु द्ध लड़ने में समर्थन दे या नहीं, इस प्रश्न पर मतभेद था. साथ ही,  अंग्रेज सरकार  भारत को स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं थी. भारतीयों पर अंग्रेजी अत्याचार चरम पर पहुंचते  हुए असह्य होता जा रहा था. सभी व्यथित थे. अंदर ही अंदर लोगों में आक्रोश पनप रहा था.
वर्धा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति की बैठक में तय पाया गया कि अंग्रेजों से देश को स्वतंत्र कराना ही होगा. इस मांग को प्रस्तुत करने का विचार स्थिर किया गया. इस काम के लिए 8 अगस्त, 1942 को मुंबई (तत्कालीन बंबई) में संपन्न कांग्रेस की बैठक में पूर्ण स्वराज्य की मांग हुई. ग्वालिया टैंक मैदान में ‘करो या मरो’ के नारे के साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारा दिया. गांधी जी द्वारा इस घोषणा के बाद कुछ ही घंटों में तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया गया. 9 अगस्त को ग्वालिया मैदान में अरु णा आसफ अली ने भारत का तिरंगा लहराया और असहयोग आंदोलन का बिगुल फूंका. कुछ ही दिनों में पूरे देश में विशाल जन आंदोलन फैल गया. विरोध दर्ज कराने का यह विलक्षण प्रयास बन गया. लोग जेल भरने लगे और विदेशी चीजों का बहिष्कार शुरू हो गया. अंग्रेजी हुकूमत ने इसको दबाने की भरपूर कोशिश की.

अंग्रेजी शासन के विरोध की आग देश में चारों ओर फैल गई. महाराष्ट्र में वर्धा के निकट आस्टी नामक कस्बा है. वहां भारतीय ध्वज फहराने और विरोध प्रदर्शन करने के सिलसिले में भारत माता के वीर सपूतों ने जान की भी परवाह नहीं की. माल्पे और पांच अन्य लोग पुलिस की गोली से शहीद हुए. अंग्रेजी शासन का विरोध मुखर और तीव्र हो चला. इस हफ्ते अमर शहीद माल्पे जी के पुत्र डॉ. अरविंद माल्पे से मिलने का सौभाग्य मिला. यह सुयोग नौ  अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की पचहत्तरवीं वषर्गांठ के अवसर का था. जब यह घटना हुई थी, तो वह मां के पेट में थे. पिता की उम्र थी बत्तीस साल. उन्होंने पिता को देखा नहीं था. शिक्षा पाकर अरविन्द डॉक्टर बने. स्वयं समाज-सेवा में जुटे हैं. उन्होंने अमर शहीद देश के इन वीर सपूतों पर एक यादगार फिल्म बनाई है, जो दिखाती है कि किस तरह आम आदमी स्वतंत्रता के भाव से पवित्र मन से जुड़ा था. इतिहास का यह एक मर्मस्पर्शी और अछूता पन्ना है. इस घटना के ब्योरे में तफसील से जाने पर पता चला कि हिंदू-मुस्लिम, ऊंची-नीची हर जाति, हर कौम के अनपढ़ और पढ़े-लिखे सभी तरह के लोग इस यज्ञ में आहुति दे रहे थे. वे न हिंदू थे, न मुस्लिम. सिर्फ भारतीय थे. स्वतंत्रता का जज्बा उन सब में था. हर कोई देश के लिए कुर्बानी देने के लिए मन से तत्पर था. यह सब तब हो रहा था, जब संचार माध्यम आज की तरह तीव्र वेग वाले न थे. ‘देश’ एक समूह या जातिवाची शब्द है, जो स्वभाव से बहुवचन है. इससे जुड़ कर व्यक्ति की निजी अस्मिता का विस्तार होता है. इस अस्मिता-परिष्कार की प्रक्रिया से गुजरते हुए अपनी  निजी अकेली अस्मिता को स्थगित करते हुए व्यक्ति संपन्न होता है. यह एक ऐसी सर्जनात्मक अस्मिता होती है, जिसमें सभी साझा कर पाते हैं बिना किसी व्यवधान या आपसी कलह के. देश के इस भाव ने सबको अपनी ओर खींचा, सबमें एका का भाव जगाया, एक ध्येय की ओर अग्रसर किया.
आज देश बनने की कथा हमारे मन-मस्तिष्क से बिसरती जा रही है, और उसका महत्त्व समाप्त हो रहा है. देश आज हमारे ख़्ाुद के अहं से छोटा हो रहा है. उसके लिए अवकाश नहीं है, न मन में कोई जगह ही बन रही है. लोग देश को स्वयंसिद्ध प्राकृतिक घटना मान बैठे हैं, और सब कुछ करने के बाद अगर समय मिला और सुभीता हुआ तो देश को भी याद कर लेंगे. स्वतंत्रता दिवस जैसा राष्ट्रीय अवसर कइयों के लिए छुट्टी का दिन होता है. यह वैधानिक छूट हमने ले रखी है, और आराम किसे नहीं भाता? गलतफहमी में मान बैठे हैं कि हम हैं, तो देश है. आखिर, देश है तो हमारे लिए ही! हम देश के सम्मानित नागरिक जो ठहरे. भूले जा रहे हैं कि देश है, तो हम हैं. यदि देश ज्ञान, धन-धान्य से समृद्ध नहीं हुआ तो हम भी कहीं के नहीं रहेंगे. हमारा होना तभी होना होगा जब उस होने में देश के साथ जुड़ाव भी रहेगा. आज देश के साथ अपने कर्म से, अपने भाव से, अपने साधन से जुड़ने के लिए हमारा आह्वान कर रहा है. आइए, इस आह्वान को हम स्वीकार करें और एक सशक्त और समर्थ भारत का निर्माण करें.

गिरीश्वर मिश्र
लेखक


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