मीडिया : टायलेट दिया मेरे भारत ने

Last Updated 13 Aug 2017 04:38:34 AM IST

टायलेट देखते ही अपना हिंदी वाला एंकर फड़क उठा. मानो बरसों से टायलेट ही न गया हो. तो भी, एंकर से रहा न गया.




मीडिया : टायलेट दिया मेरे भारत ने

हीरो से पूछा कि सुना है कि लोग शौचालय में सोचा करते हैं तो. हीरो ने कहा : सब वहीं सोचा करते हैं. यही हाल एक अंग्रेजी एंकर का होता दिखा. ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ के एंट्री लेते ही उसने भी ऐसे ही दिखाया, मानो जाने कब से वह टायलेट जाने को तरस रहा है. जब प्रोमो इतना प्रेरक है, तो फिल्म कितनी उत्प्रेरक न होगी?
ऐसा किस्सा भी सुना कि प्रोमो से प्रेरित लोग अपने हाथ में लोटा लेकर आए और लाइन भी लगाए  ताकि इस ‘प्रेमकथा’ वाले दिव्य टायलेट के दर्शन कर बरसों की साध पूरी कर सकें. स्पष्ट है कि इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसका शीषर्क है. इतना मौलिक शीषर्क आज तक नहीं देखा.
‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ का शीषर्क अपने आप में इतना उत्प्रेरक है कि बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ती फिल्मों को सत्तर साल बाद एक नई थीम मिली है. बॉलीवुड में अब टायलेट की थीम पर एक से एक फिल्में बना करेंगी. फिल्म की फिल्म और स्वच्छता अभियान तथा देश प्रेम में विनम्र योगदान..

सौ साल से ज्यादा के इतिहास में फिल्मों ने सब तरह की प्रेमकथाएं कहीं, लेकिन ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ की टक्कर जैसी प्रेम कथा आज तक न सोच पाए. प्रेम कथाएं बनती रहीं. प्रेमी कभी बाग-बगीचों में, कभी समुद्र के ‘बीच’ पर, कभी कैम्पस में अपनी-अपनी प्रेम कथाएं कहते रहे. लेकिन ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ जैसी धांसू फिल्म आज से पहले न बना सके. हरा-भरा बाग होता. फूल खिले होते. आर्टिफिसियल झरने बह रहे होते. नायिका की ‘हां’ सुनने के लिए प्रेमी नायक गाने लगता : ‘बागों में बहार है. कलियों पे निखार है..तुमको मुझसे प्यार है?’ चंचल नायिका ‘ना ना ना ना’ कहती भाग जाती. फिर पेड़ों के पीछे, झुरमुट के नीचे वे एक दूसरे का गिनकर तीन मिनट तक पीछा करते दिखते. फिर निदेशक दो फूलों की एक दूसरे से ‘किस्सी’ करवाता और प्रेम कथा पूरी हो जाती.
ऐसे ही ‘समुद्र का बीच : एक प्रेम कथा’ कही जाती. एक लंबी-सी नायिका लंबी फ्राक पहने कूदती हुई चलती जाती. पीछे नायक उसके चरण चिह्नों पर कूद के गिरता और कहता : ‘चुरा के दिल मिरा गोरिया चली’. गोरिया जबाव देती :‘मुझे क्या पता कहां मैं चली?’
फिर ‘कैम्पस : एक प्रेम कथा’ के दिन आए..एक कैम्पस होता. हीरो शायर होता. हीरोइन पढ़ाकू होती. फिर एक प्रेम सीन इस तरह बनता : हीरोइन किताब लेकर उधर से आ रही है. इधर से शायर उधर जा रहा है कि हीरोइन के कोमल हाथों से फिसल कर उसकी किताबें ऐन तब गिरती हैं, जब हीरो उसके पास से गुजर रहा होता है. हीरोइन किताब उठाने को झुकती है, तो हीरो उससे भी तेजी से झुक कर किताबें उठा लेता है. दोनों एक दूसरे को एक टक देखते हुए खड़े होते हैं. हीरोइन शरमा जाती है. हीरो इसे ‘लव एट फस्र्ट साइट’ मानकर खुश होता है, और किताब दे देता है. बाद में वह भरे हॉल में एक हिट गाना गाता :
‘मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम
फिर मुझे नरगिसी आखों का नजारा दे दे..!’
अब ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ आई है. यह इक्कीसवीं सदी की पहली मौलिक कथा है, जिसने एकदम नई जमीन तोड़ी है. इसने फिल्मों का मुहावरा बदला है. मेरी नजर में यह समस्त प्रकार के राष्ट्रीय सम्मानों के योग्य है, और मैं तो कहूंगा कि इसकी मौलिकता के लिए इसे ‘कॉन’ फिल्म फेस्टीवल में जरूर भेजा जाए ताकि यूरोपीय लोग इसे देख कर समझ सकें कि जिस अंग्रेज ने दुनिया को टायलेट कल्चर दी, उसमें भी हमारे बॉलीवुड ने अपने तरीके की एकदम भारतीय किस्म की एक ‘प्रेम कथा’ गूंथ दी. यह फिल्म एक ‘सांस्कृतिक विमर्श’ भी है,‘सभ्यता विमर्श’ भी है. कभी भारत ने दुनिया को जीरो दिया था, तब दुनिया को गिनती आई थी. अब भारत ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ सिखा रहा है. टायलेट का टायलेट और प्रेम का प्रेम. एकदम ‘टू इन वन’. लेकिन मेरी एक जिज्ञासा है, और वह यह है कि ‘टायलेट : एक प्रेम कथा’ का हीरो टायलेट में टायलेट करने जाता है कि प्रेम करने जाता है?
चूंकि यह प्रेम कथा है, इसलिए टायलेट करे न करे, प्रेम तो उसे करना ही होगा. तब सवाल यह है कि प्रेम सीन में वह टायलेट में हीरोइन के साथ दौड़-दौड़ कर गाना कैसे गाता होगा? हीरोइन हीरो से लुका-छिपी करते हुए कहां छिपती होगी? कैसे कहती होगी : ‘ना ना ना ना’?

सुधीश पचौरी
लेखक


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