उप राष्ट्रपति ऐसा कैसे कह सकते हैं?

Last Updated 12 Aug 2017 05:50:30 AM IST

अपने कार्यकाल के अंत में पूर्व राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सोचा-समझा एक विवादित बयान दिया कि हाल के वर्षो में भारतीय मुसलमानों में भय का वातावरण बना है.


उप राष्ट्रपति ऐसा कैसे कह सकते हैं?

अंसारी पिछले कई दशकों से भारतीय राज्य के अंतर्गत प्रतिष्ठा के पदों पर कार्यरत और पिछले दस साल से देश के उप राष्ट्रपति भी रहे हैं. यदि उनको ऐसा वातावरण लग रहा था तो उनका यह संवैधानिक और नैतिक दायित्व था कि सार्वजनिक या गोपनीय तरीके से सरकार को अपनी राय से अवगत कराते. अब यह तो वे ही बता पाएंगे कि ऐसा उन्होंने पिछले तीन वर्षो में क्यों नहीं किया? संवैधानिक पद पर बने रहने की बाध्यता और संविधान को बनाए रखने की बाध्यता में से एक को चुनना था तो अगर वे ईमानदार होते तो दूसरे को चुनते और पद से इस्तीफा देकर जिन बातों को वे भारत के संविधान और देश के लिए घातक मानते हैं, उसकी आवाज उठाते. पर क्या सुविधाभोगी होने की आदत ने उन्हें ऐसा करने से रोका था? फिर तीन वर्षो तक वे अपने ही बातों को क्यों झुठलाते रहे?

देश में एक संवैधानिक व्यवस्था है और संविधान के तहत संस्थाएं काम करती हैं, जिनकी जड़-जमीन और परिपाटी मजबूत और सुदृढ़ है. इसका उदाहरण अभी राज्य सभा चुनाव में दिखाई पड़ा जब चुनाव आयोग ने सत्ताधारी पार्टी के प्रतिनिधियों की मांग खारिज करते हुए विपक्ष के आरोप को जायज ठहराते हुए अपना निर्णय दिया, जिसमें अहमद पटेल जीते. जबकि कहा जाता था कि सरकार संस्थाओं पर दबाव डालकर उनका अवमूल्यन कर रही है. देश में ऐसी अनेक संवैधानिक और अर्ध-संवैधानिक संरचनाएं हैं, जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों, सम्मान, समान अवसरों और सुरक्षा को सुनिश्चित करती हैं. इनमें अदालत से इतर अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय शामिल हैं. क्या हामिद अंसारी को इन संस्थाओं से ऐसी कोई तथ्यात्मक जानकारी मिली है कि मुसलमान अपने आप को असुरक्षित और संस्थागत भेदभाव महसूस कर रहे हैं? अल्पसंख्यक आयोग को मिलने वाली शिकायतों में बहुत ही कम मात्रा में ऐसी शिकायतें हैं, जिसमें असुरक्षा या भेदभाव की बात कही गई है. फिर अंसारी के ऐसा कहने का क्या आशय है?

यह पूछा जा सकता है कि अगर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अंसारी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया होता या उप राष्ट्रपति के पद पर उन्हें तीसरी बार नवाजा गया होता तो क्या उनकी यह दृष्टि वैसी ही होती? दरअसल, हामिद अंसारी का बयान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाला और भारत की छवि को धूमिल करने वाला है. देश में उसका प्रभाव इसलिए नहीं होगा क्योंकि देश लगभग एक शताब्दी से ऐसे बड़ी संख्या में कुलीनों को देख चुका है और अनुभव से अपनी परिपक्वता विकसित कर चुका है कि कैसे वे अपने यश, राजनीतिक सत्ता और बड़े मौकों को प्राप्त करने के लिए साम्प्रदायिकता की पीठ की सवारी करते हैं और अपने-अपने सम्प्रदाय को भ्रमित करते और भड़काते रहे हैं.

मोहम्मद अली जिन्ना और उनके समकालीन मुस्लिम लीग के नेताओं ने यही तो किया था. मुस्लिम लीग के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए जब जवाहरलाल नेहरू  ने 1945 में  ‘मास कांटेक्ट प्रोग्राम’ शुरू किया तो नेहरू की लोकप्रियता को कम करने के लिए ऐसे लीगी कुलीनों ने उन्हें ही हिन्दू साम्प्रदायिकता का प्रतीक बना दिया. देश के विभाजन की लड़ाई में अन्य बातों के साथ-साथ कुलीनों की अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और अहम का टकराव भी एक बड़ा कारण रहा है. आजादी के बाद यह भाव उत्पन्न हुआ था कि अब लीगी राजनीति का कोई स्थान नहीं है, लेकिन उसके अवशेष ने उस राजनीति को समाप्त नहीं होने दिया. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जब भारत के मुस्लिम लीग के सदस्यों ने विभाजन के बाद अक्टूबर महीने में बहुमत से लीग को भंग करने और नई परिस्थिति में इसे अनावश्यक समझकर संगठन को भंग करने की अनुशंसा की थी तो 14 दिसम्बर 1940 में कराची में मुस्लिम लीग सम्मेलन में जिन्ना ने ऐसा नहीं करने का आदेश दिया. उसमें भारत से लीग के 100 प्रतिनिधि शामिल थे एवं जिन्ना ने ही विभाजन के बाद के मुस्लिम लीग का संयोजक मद्रास के मोहम्मद इस्माइल को नियुक्त किया था और इन सबको नेहरूवादी राजनीति निष्क्रिय भाव से देखती रह गई.



आज उसी राजनीति के एक गैर लीगी परंतु उसी मानसिकता के प्रतिनिधि हामिद अंसारी हैं. साम्प्रदायिकता दो प्रकार की होती है. एक जमीन पर होती है, जिसका कारण सम्प्रदायों के बीच परस्पर कटुता, वैमनस्य, घोर प्रतिद्वंद्विता होती है और यह धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक सभी स्तरों पर विद्यमान रहती है. क्या भारत में ऐसा है? न यह था और न है. गांवों, कस्बों में जहां भी हिन्दू बहुल हैं वहां सामंजस्य का जीवन है. यदि सामंजस्य में कहीं असंतुलन है तो उन क्षेत्रों में जो मुस्लिम बहुल हैं. भारत पंथनिरपेक्षता की एक ऐतिहासिक और सुंदर प्रयोगशाला रहा है. आम भारतीय मुस्लिम समाज और राजनीति का अभिन्न हिस्सा है और न ही उसकी देशभक्ति पर किसी प्रकार का प्रश्न उठता है. जो साम्प्रदायिक भावनाएं हैं, उनके पीछे दूसरे प्रकार की साम्प्रदायिकता काम कर रही हैं. यह ऊपर से थोपी गई साम्प्रदायिकता है. यह कुलीनों से आम लोगों तक जाती है.

मुस्लिम नेतृत्व ने आम मुसलमानों को शुरू  से भय, षड्यंत्र, भेदभाव इत्यादि के वैचारिक पटल पर पोषित किया है. इसके कारण उनके मन में इच्छा-विहीनता पैदा हो गई है और मुस्लिम कुलीन इसी को उनकी अवसरहीनता बतौर पेश करते हैं. दूसरी तरफ, मुस्लिम कुलीनों में सत्ता और अवसर पाने की भरपूर इच्छा होती है, लेकिन किसी भी देश में अवसरों की सीमितता के कारण अवसर से वंचित होने का खतरा बना रहता है. और यही कुलीन अपने समुदाय में साम्प्रदायिक मनोवृत्ति, असुरक्षा का भाव पैदा कर उसका नेतृत्व अपने हाथों में बनाये रखना चाहते हैं और सत्ता एवं अवसरों के लिए मोल-जोल करते हैं.

अंसारी इसी दूसरे प्रकार के साम्प्रदायिक-दर्शन के कुलीन प्रतिनिधि हैं. लम्बे समय तक समाज और राष्ट्र के संसाधनों का उपयोग कर दायित्व के पदों पर रहने वालों से उम्मीद की जाती है कि समाज और राजनीति में यदि कोई बुराई है तो वे अपनी रचनात्मकता से उसे समाप्त या कम करने में योगदान दें, लेकिन हामिद अंसारी ने इसका उलटा किया. उनका बयान देश के लोगों के लिए कुलीनों की प्रकृति, स्वार्थपरक राजनीति और सद्भाव के प्रति असंवेदनहीनता को समझने का एक बड़ा अवसर है.

 

 

राकेश सिन्हा


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