..पर गलत तो कुछ नहीं कहा

Last Updated 12 Aug 2017 05:43:31 AM IST

देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 13 अक्टूबर, 2014 को नार्वे के दौरे पर जाते हुए विदेशी पत्रकारों से बातचीत में कहा था कि भारत में अंदरूनी तौर पर आतंकवादी गतिविधियां चलाने वाले नहीं के बराबर हैं.


हामिद अंसारी ने गलत तो कुछ नहीं कहा.

उन्होंने बल देकर कहा था कि 15 करोड़ की मुस्लिम आबादी में शायद ही कोई आतंकवाद में शामिल है. वह देश में आतंकवाद को मुसलमान से जोड़कर देखने के हालात को पूरी तरह से झुठला कर वास्तविक स्थिति को बयां कर रहे थे. देश में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति संसदीय राजनीतिक की सीमाओं से मुक्त होने का एहसास करते हैं और लोकतंत्र के खिलाफ उभरतीं प्रवृत्तियों की तरफ समाज और सरकार को इशारा करता है.

उप राष्ट्रपति के रूप में दस वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के उपरांत हामिद अंसारी के एक प्रश्न के जवाब में कथन-देश में मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं-पर बहस हो रही है. लेकिन उप राष्ट्रपति और हामिद अंसारी को दो हिस्से में बांट कर उनके किसी भी बयान को देखें तो उसका ठीक-ठीक विश्लेषण और व्याख्या संभव नहीं हो सकती. पिछले कई चुनावों के अनुभवों और राजनीति में मुसलमानों की भागीदारी को लेकर धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों का जैसा  नजरिया देखने को मिला है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि संसदीय राजनीति की सीमाओं में देश के अल्पसंख्यकों की वास्तविक तस्वीर पेश करना संभव नहीं रह गया है.

एक विपक्ष के बड़े राजनीतिज्ञ ने जनता से संवाद के लिए निकलते हुए कहा कि उसने अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया है कि मुसलमानों को उसके कार्यक्रमों में पीछे रखा जाए. दूसरे नेता ने विधानसभा चुनाव के दौरान अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि मुस्लिम मतदाताओं को मत देने के लिए दोपहर के बाद लाइन लगाने को कहें. यदि वे सुबह लाइन लगा देंगे तो धर्म के आधार पर मतों के ध्रुवीकरण होने का खतरा है. एक तरफ केंद्र और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है, और वह राजनीति में अपनी जीत पर भरोसा इस प्रचार के साथ सबसे ज्यादा करती है कि उसे मुस्लिम मतों की जरूरत नहीं है. संसदीय राजनीति हिंदुत्व की प्रतिस्पर्धा की तरफ चली गई है.

मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या और सदन में उनकी संख्या पर गौर करें तो संसदीय राजनीति में मुसलमानों की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं. साम्प्रदायिक हमलों की घटनाएं बढ़ी हैं, यह तो केंद्र सरकार के ताजा आंकड़े भी बताते हैं. सच्चर समिति की रिपोर्ट पहले से ही मुस्लिमों के असुरक्षित होने के दस्तावेज के रूप में मौजूद है. मुसलमानों के भीतर असुरक्षा बोध को महसूस करना वास्तव में देश की अखंड़ता को मजबूत करने, लोकतंत्र के खतरों से निपटने और धर्मनिरपेक्षता की अनिवार्यता को स्वीकार्य बनाए रखने की जरूरत पर बल देना है.



हामिद अंसारी के पिछले दस वर्षो के भाषणों के आलोक में इस बयान को देखें तो यह उनका बयान नहीं लगेगा बल्कि वास्तविकता को दर्शाने वाले उप राष्ट्रपति के बयान के रूप में दिखता है. अपने विदाई भाषण में उन्होंने राज्य सभा में उप राष्ट्रपति राधाकृष्णन को उद्धृत किया और लोकतंत्र में अल्पसंख्यक की भावना और विचारों का सम्मान जरूरी बताया. यहां अल्पसंख्यक संसद में कम संख्या वाले दलों के प्रतिनिधित्व के रूप में आता है यानी बहुलतावाद में हर स्तर पर अल्पसंख्यक की तरफ झुकाव लोकतंत्र की संवेदनशीलता के लिए जरूरी है.

इस प्रश्न पर सोचें कि अल्पसंख्यकों के हालात पर राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति नहीं बोलते हैं, तो कौन बोलेगा. इससे पहले बेंगलुरू में अल्पसंख्यक, विविधता आदि पहलुओं पर भी उन्होंने बेबाक राय रखी. इससे पहले शिक्षण संस्थानों पर हमलों की प्रवृत्ति के खिलाफ उनका नजरिया सामने आया था. खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने के बारे में भी उन्होंने जोर दिया.

मीडिया की स्थिति पर बतौर उप राष्ट्रपति अंसारी ने सबसे ज्यादा बेबाक तरीके से वास्तविकता का बयान किया है. यह तुलना की जाए कि राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी और उप राष्ट्रपति के रूप में हामिद अंसारी में से किसने पिछले पांच वर्षो में बहुलतावाद, सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिंक अनेकता के महत्त्व और असहिष्णुता को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया तो अंसारी भारी पड़ेंगे. क्या यह कोई एक दूसरे के विपरीत राय है? लेकिन  अंसारी यदि असहिष्णुता की बात कहते हैं तो उसे एक मुस्लिम प्रतिनिधि के बयान के रूप में कतई नहीं पढ़ा जाना चाहिए. 

 

 

अनिल चमड़िया


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