राज्य सभा : जीत तो चुनाव आयोग की हुई

Last Updated 11 Aug 2017 01:01:21 AM IST

तमाम कयासबाजियों, अपशब्दों और कटु वचनों के बीच बीते मंगलवार की मध्य रात्रि को संपन्न राज्य सभा के चुनाव ने उन तमाम मुद्दों की ओर ध्यान खींचा है, जो अरसे से बाट जोहते रहे हैं कि उनका तार्किक समाधान होना चाहिए.


राज्य सभा : जीत तो चुनाव आयोग की हुई

खरीद-फरोख्त से लेकर दल-बदल विरोधी कानून, सत्ता और निर्वाचन आयोग की भूमिका, मत की गोपनीयता और गोपनीयता के उल्लंघन के लपेटे में आए दो सवालिया मतपत्र जैसे तमाम मुद्दे तवज्जो दिए जाने की दरकार रखते हैं. सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है खरीद-फरोख्त का मुद्दा जो बड़े पैमाने पर कांग्रेस से दल-बदल कराए जाने के रूप में छाया रहा. गुजरात के छह कांग्रेस विधायकों ने अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा का हाथ थाम लिया. बाद में कांग्रेस के सात और विधायक बागी हो गए और एक ने क्रॉस वोटिंग की.
दल बदल का खेल चलता रहता, लेकिन कांग्रेस ने एहतियातन अपने बाकी चालीस विधायकों को कांग्रेस-नीत बेंगलुरू स्थित एक रिसॉर्ट में ले जाकर ठहरा दिया. कांग्रेस का कृत्य किसी राजनीतिक थ्रीलर सरीखा लगता है, लेकिन अपनी पार्टी को छोड़ जाने का दुर्भाग्यपूर्ण तौर-तरीका कोई आज का चलन नहीं है. याद करें तीन दशक पूर्व घटे ‘आया राम, गया राम’ घटनाक्रम को. दरअसल, सत्ता की राजनीति में बेतहाशा पैसा आ जाने से हर पार्टी के लिए यह करीब-करीब असंभव हो गया है कि अपने सदस्यों को निष्ठावान बनाए रख सके. निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब अपने जहाज से कूद जाएं, कहा नहीं जा सकता. इसी से ‘होर्स-ट्रेडिंग’ शब्द चलन में आ गया है. बताया जाता है कि होर्स-ट्रेडिंग में करोड़ों रुपये का ऑफर आम है. नियमित अंतराल पर देखे जाने वाले इस चलन ने सही सोच वालों को लाचार कर दिया है.

होर्स-ट्रेडिंग से दल-बदल विरोधी कानून की व्यावहारिकता को लेकर एक और मुद्दा उभरता है. इस कानून के चलते ही दल-बदल करके भाजपा में जाने वाले छह विधायकों को मत देने से अयोग्य घोषित किया जा सका. लेकिन क्रॉस वोटिंग करने वाले सात विधायकों को अयोग्य घोषित नहीं किया जा सका क्योंकि यह कानून तभी लागू होता है, जब विधायी कार्यवाही के मामले में पार्टी व्हिप का उल्लंघन हुआ हो. एक अन्य मुद्दे कांग्रेस का नोटा के प्रावधान को लेकर यकायक सक्रिय हो उठने का रहा. हालांकि यह व्यवस्था जनवरी, 2014 से व्यवहार में है. कांग्रेस इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के सामने ले गई. शीर्ष अदालत ने नोटा के प्रावधान के खिलाफ स्थगनादेश देने से इनकार कर दिया. यह पूछते हुए कि बीते साढ़े तीन वर्षो में उसने इस पर सवाल क्यों नहीं किया. अदालत का इनकार अनुच्छेद 329 की व्यवस्था के मद्देनजर भी था. अनुच्छेद में व्यवस्था है कि चुनाव प्रक्रिया आरंभ हो चुकने के पश्चात न्यायिक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता. मुझे लगता है कि इस मामले में नये सिरे से विचार किए जाने की जरूरत है. वैसे ही जैसे कि उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पद नोटा की परिधि से बाहर हैं, और इस व्यवस्था से बराबर भ्रम बना रहता है. 
मत की गोपनीयता एक अन्य मुद्दा है. स्थापित नियम है कि सभी चुनावों में सभी मत गोपनीय हैं, और अपना मत कोई दिखाता है, तो मत निरस्त कर दिया जाता है. होर्स-ट्रेडिंग पर रोक के लिए कोड ऑफ इलेक्शन रूल्स, 1961 के नियम 39 में व्यवस्था है, जिसके तहत राज्य सभा चुनाव में मतदाता अपना वोट करने के उपरांत अपना मत अपनी पार्टी के अधिकृत प्रतिनिधि को ही दिखा सकता है, किसी अन्य को नहीं. गुजरात में दो कांग्रेस विधायकों ने अपने मत प्रतिद्धंद्वी भाजपा नेताओं के प्रति अपनी वफादारी दर्शान के लिए  उन्हें दिखाए. इसकी शिकायत कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग के समक्ष की. भाजपा का कहना था कि यह आपत्ति विलंब से उठाई गई है. यही समय था जब तमाम अटकलबाजियों का सिलसिला आरंभ हो गया. आयोग की निष्ठा पर भी सवाल उठे. कुछ ने आयोग की बुद्धिमत्ता पर सवाल किए कि वह बार-बार राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को मिलने का समय दे रहा है. मुझे लगता है कि आयोग ने अच्छा किया जो सभी का पक्ष सुना. इससे उसे अपना स्पष्ट रुख जाहिर करने में मदद मिली. न्याय का सिद्धांत भी यही कहता है. भाजपा ने आयोग और पीठासीन अधिकारी के अधिकार को लेकर भी सवाल उठाए. मैंने तमाम सवालों की प्रतिक्रिया में ट्वीट भी किए कि जब तक चुनाव के नतीजे घोषित नहीं हो जाते तब तक आयोग को पूरा अधिकार होता है. अलबत्ता, चुनाव नतीजे आ  चुकने के बाद उसके पास कोई अधिकार न रहकर उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में पहुंच जाता है. वैसे आयोग अपना पर्यवेक्षक भेजता है, जो मतगणना और नतीजे विसंगति देखने पर रोक सकता है. उसके और आयोग के पूरी तरह संतुष्ट होने के उपरांत ही नतीजे की घोषणा की जाती है. हालिया मामले में हमें यही स्थिति देखने को मिली. एक रोचक सवाल उस तौर-तरीके को लेकर उभरा कि कैसे विवादित मतों की पहचान की गई जबकि वे अन्य मतों के साथ मतपेटी में मिल चुके थे. बताना चाहूंगा कि मत पत्र के पीछे यूनिक संख्या छपी होती है.
इस कयास, कि दोनों आयुक्त भाजपा द्वारा नियुक्त किए जाने (सच तो यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त गुजरात में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुख्य सचिव भी रहे) के चलते सत्ताधारी  पक्ष के दबा में आ जाएंगे, के उलट चुनाव आयुक्तों ने शानदार फैसला दिया. मैं अपना अनुभव बताना चाहूंगा कि मुख्य चुनाव आयुक्त कार्यालय का अपना ही आभामंडल होता है, सांस्थानिक परंपरा और ढांचा उसके अंत:करण को चैतन्य बनाए रखता है. मेरे कार्यकाल में मार्च, 2012 में एक प्रमुख होर्स-ट्रेडिंग की घटना प्रकाश में आई थी. प्रवर्तन टीम ने एक प्रत्याशी के वाहन से दो करोड़ रुपये बरामद किए थे. हमने चुनाव निरस्त करने का प्रत्याशित फैसला किया. राजनीतिक नेताओं ने इसकी खुले दिल से सराहना की थी. भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला था, लेकिन जीत चुनाव आयोग की हुई है.    
(लेखक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हैं)

एसवाई कुरैशी
लेखक


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