मुद्दा : लड़के भी पढ़ें होम साइंस
अगर इस बात पर हमारे समाज ने गौर किया होता कि पिछले दो दशकों में लड़कियों और लड़कों के पालन-पोषण में क्या फर्क आया है, तो संभव था कि आज का मर्द समाज स्त्रियों का सच्चा साझीदार होता और देश-समाज में लड़कियों के योगदान की वास्तविक परख कर पाता.
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बात यह है कि इन 15-20 सालों में शहरी और कस्बाई समाज के खुले विचारों के अभिभावकों ने अपनी लड़कियों को पढ़ने, खेलने-कूदने के मौके दिए, उन्हें कम्प्यूटर, कार-स्कूटर चलाना और हवाई जहाज तक उड़ाना सिखाया पर लड़कों की पढ़ाई-लिखाई और सलाहियत में कोई फर्क नहीं आया.
इस बात को और सरल करें तो यों समझिए कि लड़कियों ने तो वे ज्यादातर काम और गुर मौका पाकर सीखे जो अब तक लड़के करते आए थे, लेकिन लड़कों ने उस ओर झांका तक नहीं, जिन्हें लड़कियां करती थीं. लड़कियां घर में चूल्हा-चौका बनाना सीखती थीं, सिलाई-कढ़ाई-बुनाई सीखती थीं, अचार-मुरब्बे डालना और जिसे होम साइंस कहा जाता है-उसमें पारंगत होती थीं. यह मानते हुए कि इनके बिना उनकी जिंदगी की गाड़ी नहीं चलने वाली. इसके साथ-साथ अवसर दिए जाने पर उन्होंने मर्दाना माने जाने वाले सारे कार्यक्षेत्रों में दखल दिया और साबित किया कि मौका पड़ने पर वे सारे काम बखूबी कर सकती हैं, जिन्हें वर्गीकृत कर पुरुषों तक सीमित किया गया था. हद तो यह हुई है कि अगर किसी लड़के ने रसोई की तरफ कदम बढ़ाए तो लड़कियों को शिक्षित करने, नौकरी की छूट देने वाले परिवारों में भी लड़कों को यह कहकर झिड़क दिया जाता है कि उन्हें लड़की बनना है क्या? या शादी के बाद बीवी की गुलामी करनी है.
इसका नतीजा क्या निकला? एक परिणाम रोजगार और बेरोजगारी की दर जानने के लिए भारत सरकार द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में दिखा.
सरकार ने यह सर्वेक्षण यह जानने के लिए कराया है कि देश में घरेलू कामकाज असल में कौन करता है, मर्द या औरत? सर्वे के अनुसार देश में सिर्फ 0.4 प्रतिशत पुरु ष घरेलू कामकाज करते हैं. इस नतीजे को देखते हुए सर्वे को सिर्फ महिलाओं पर केंद्रित कर दिया गया. बेशक, घर से बाहर जाकर नौकरी करने वाली महिलाओं का प्रतिशत भी पुरु षों के मुकाबले कम है, लेकिन वहां का अनुपात एकदम निराश करने वाला नहीं है. गांवों में 55 नौकरीपेशा मदरे के मुकाबले 25 महिलाएं नौकरी करती हैं, जबकि शहरों में 56 पुरु षों के अनुपात में सिर्फ 16 महिलाएं नौकरी पर जाती हैं. कुल मामला लैंगिक संवेदनशीलताका है, जिसकी जरूरत सिर्फ इसलिए नहीं है कि लड़के भी लड़कियों वाले काम करना सीख-समझ लें, बल्कि इसलिए है कि मर्द समाज महिलाओं के प्रति बढ़ते भेदभाव और उनके दुख-तकलीफों को समझ सकें और साझा कर सकें.
यह काम स्कूल स्तर से होना चाहिए-इसका एक सुझाव चार साल पहले एक संसदीय समिति भी दे चुकी है. समिति ने सुझाव दिया था कि स्कूलों में ऐसा पाठ्यक्रम होना चाहिए, जिससे छात्र लड़कियों-महिलाओं की समस्याओं और उनके मुद्दों के प्रति जागरूक हो सकें. इसके अलावा, समिति ने प्राइमरी स्तर से देश में सह शिक्षा (को-एजुकेशन) पद्धति लागू करने की सिफारिश भी की थी ताकि बच्चे महिलाओं के प्रति संवेदनशील हो सकें. ऐसी ही एक पहल अब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के सुझाव पर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से तैयार महिलाओं के लिए राष्ट्रीय नीति, 2017 के मसौदा प्रस्ताव में की गई है. इसमें लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने के लिए लड़कों और लड़कियों, दोनों के लिए गृह विज्ञान और शारीरिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव है. अगर इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलती है तो स्कूलों में लड़कों को गृह विज्ञान पढ़ना होगा, जिसे फिलहाल पूरा समाज लड़कियों का विषय कहता-समझता है.
लड़कों में होम साइंस को लेकर शुरु आत में चिढ़ दिख सकती है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमारा पूरा सामाजिक ढांचा पितृसत्तात्मक है, जिसमें पुरु ष अर्थार्जन का केंद्र है और स्त्रियां घर की संचालक. पर लड़के जब गृह विज्ञान पढ़ने लगेंगे, तो धीरे-धीरे उनमें से यह समझ विकसित होगी कि काम के आधार पर लैंगिक विभाजन सही नहीं है. मदरे को सीख देने वाले ये विचार बुरे लग सकते हैं, लेकिन क्या पता बदलती दुनिया में घरेलू कामकाज का ज्ञान ही हमारी जिंदगी बेहतर करे.
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