आर्थिक सर्वेक्षण : सबको न्यूनतम आय
अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से बदल रही है, क्योंकि राजनीति बहुत तेजी से बदल रही है.
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राजनीति किसी भी देश में आंतरिक कारणों से बदलती है, पर उसके परिणाम कई मामलों में ग्लोबल होते हैं. आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 इंगित करता है कि संरक्षणवाद की प्रवृत्ति बढ़ रही है. नई स्थितियों में नये समीकरण बन रहे हैं. डॉलर के रंग-ढंग बदल रहे हैं. बदली दुनिया में भारत को नई स्थितियों को समझना और उसके हिसाब से एक्शन प्लान बनाना होगा. अतीत की सफलताओं और अतीत की विफलताओं को लेकर बैठने से काम नहीं चलेगा.
आर्थिक सर्वेक्षण में एक कोटेशन का आशय है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था बड़ी तब ही बनती है, जब औद्योगिक तौर पर बड़ा देश बने. यानी उसमें तमाम आइटमों को बनाने और बेचने की काबिलियत बने. ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि भारत में रोजगार एक बहुत बड़ा मसला है. कई आइटमों कार, हैंडसेट, मोटरसाइकिल आदि बनाने में अपेक्षाकृत कम पढ़े-लिखों को भी रोजगार मिल जाता है.
सॉफ्टवेयर पावर बनने के बाद भी सॉफ्टवेयर के कारोबार में यह क्षमता नहीं है कि कम पढ़े-लिखों को रोजगार दे पाए. आर्थिक सर्र्वेक्षण रेखांकित करता है कि आखिर, क्यों जूते और कपड़े बनाने के कामों में भारत खास मुकाम हासिल न कर पाया. इन कारोबारों में बांग्लादेश, वियतनाम, इंडोनेशिया क्यों भारत पर भारी पड़ रहे हैं. बहुत ही बुनियादी सवाल सर्वेक्षण उठाता है कि हम जूतों और कपड़ों जैसे कारोबारों में बांग्लादेश और वियतनाम से पिट क्यों रहे हैं. इस सवाल के जवाब में भारत की तमाम आर्थिक राजनीतिक समस्याओं के हल छिपे हैं.
सर्वेक्षण बताता है कि समूची अर्थव्यवस्था का विकास 2016-17 में 7.1 प्रतिशत की दर से होगा पर कृषि की विकास दर 4.1 प्रतिशत रहने वाली है. अर्थव्यवस्था 6.75 प्रतिशत से 7.5 प्रतिशत तक की दर से विकास कर सकती है. यानी मोटे तौर पर तस्वीर उभर रही है कि समूची अर्थव्यवस्था के मुकाबले खेती की रफ्तार करीब आधी रहने वाली है. यह बहुत सी समस्याओं की वजह है. अर्थव्यवस्था में रोजगार के मौके इतने हैं नहीं कि खेती से निकले लोगों को दिए जा सकें. खेती की हालत ठीक है नहीं, तो अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा जाए कहां.
नोटबंदी पर आर्थिक सर्वेक्षण लगभग वह सब कहता है, जिसका खंडन वित्त मंत्री अरु ण जेटली करते आए हैं कि अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ा. आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि नोटबंदी का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है और एक ठोस आंकड़ा देता है सर्वेक्षण कि दशलमव 25 बिंदु से लेकर दशमलव 50 बिंदु तक की गिरावट विकास दर में नोटबंदी की वजह से देखने को मिल सकती है. यह बताता है कि जो कारोबार नकद आधारित थे, उन पर नोटबंदी का ज्यादा असर पड़ा है. नोटबंदी अपने आप में पूरा हल नहीं दे सकती. इसके बाद कुछ ठोस कदमों की श्रृंखला भी आनी चाहिए. जैसे करों, स्टांप ड्यूटी कम होनी चाहिए. तभी काली आय के खिलाफ एक सुचिंतित मोर्चा बांधा जा सकता है. एक सरकारी दस्तावेज मंदी की बात स्वीकार कर रहा है, तो साफ है कि ऐसी सूरत में सरकार करों का बोझ बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं लेगी.
सर्वेक्षण के संकेतों को समझें तो साफ होता है कि सरकार के कर प्रस्ताव कुछ इस तरह के हो सकते हैं कि लोगों की जेब में खर्च करने के लिए कुछ अतिरिक्त रकम बच जाए ताकि वो बाजार में कुछ खरीदारी करें. मंदी को कम करें. आयकर सीमा बढ़ाई जा सकती है. ऑटोमोबाइल उद्योग को राहत मिल सकती है क्योंकि जिस मंदी की बात सर्वेक्षण ने मानी है, उसमें इस उद्योग का महत्वपूर्ण योगदान है.
आर्थिक सर्वेक्षण महत्वपूर्ण कंसेप्ट रखता है सबके विचार के लिए. इस पर देर सबेर गंभीर विमर्श सबको करना पड़ेगा. सबको न्यूनतम आय या यूनिवर्सल बेसिक इनकम या यूबीआई का आशय यह है कि सरकार हरेक को कुछ न कुछ आय का इंतजाम करे यानी हरेक के खाते में एक न्यूतनम रकम का हस्तांतरण करे. सर्वेक्षण इसके फायदे गिनाता है. फायदा नम्बर एक तो यह है कि इससे सामाजिक न्याय पुष्ट होता है. समाज के हर हिस्से के पास कुछ न कुछ पहुंचता है, कोई वंचित नहीं रहता है. फायदा नम्बर दो यह है कि इससे गरीबी में कमी आती है.
फायदा नम्बर तीन यह है कि व्यवस्था गरीब पर भरोसा करती है यानी उसके हाथ में नकद थमाती है. यह नहीं करती कि उसे चावल-गेहूं या कोई और चीज थमाती है, उसे नकद देकर उस पर भरोसा करती है कि वह अपनी पसंद से कोई चीज ले ले. सर्वेक्षण एक बात साफ करता है कि अब रोजगार का मामला अनिश्चित-सा है यानी यह पक्का नहीं है कि रोजगार सबको मिल ही पाए. देखा जा रहा है कि तमाम रोबोट, कंप्यूटर बहुत रोजगारों को खत्म कर रहे हैं. कंपनियों के मुनाफे बढ़ रहे हैं, पर कर्मचारियों की तादाद उस अनुपात में नहीं बढ़ रही. यानी रोजगार के जरिये सबको आय मुहैया नहीं करवाई जा सकती पर सबको कुछ न कुछ न्यूनतम आय जरूरी एक योजना के जरिये उपलब्ध कराई जा सकती है.
सर्वेक्षण इंगित करता है कि तमाम मदद, कल्याण योजनाओं में भारी घोटाला होता है. जिस बंदे तक स्कीम पहुंचनी चाहिए, वहां तक पहुंच ही नहीं पाती. तमाम स्कीमों में पैसा खर्च करने से बेहतर कि सीधे विपन्न तबके के खाते में ही पैसा डाल दिया जाए. तमाम मदद-कल्याण योजनाओं में सकल घरेलू उत्पाद का करीब 5 प्रतिशत खर्च होता है, इतनी ही खर्चा आएगा. सबको न्यूनतम आय की योजना शुरू हो तो. बीच के तमाम भ्रष्टों, बिचौलियों को हटा दिया जाए तो विपन्नों तक सीधे रकम पहुंचाई जा सकती है.
पर ऐसी स्कीम के खिलाफ तर्क यह भी है कि कहीं यह मुफ्तखोरी और निकम्मेपन को बढ़ावा तो न दे देगी. सोचने की बात है , जो आर्थिक सर्वेक्षण ने रखी है. यह लगातार लंबे समय तक लोकतंत्र में नहीं चल सकता कि कुछ के पास लगातार संपत्ति का केंद्रीकरण होता रहे, कुछ के पास कुछ भी न हो. लोकतंत्र में ऐसी स्थिति घातक हो जाती है. सो, कुछ न कुछ तो हरेक के पास होना ही चाहिए. यूनिवर्सल बेसिक इनकम का कंसेप्ट यही है. इस पर सार्थक बहस चले, तो यह आर्थिक सर्वेक्षण 2016-17 की सबसे बड़ी सफलता मानी जाएगी.
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