बजट : राजनीतिक चंदे पर चोट
बजट भाषण में राजनीति को आईने की तरह साफ साफ बनाने की कोशिश का दावा वित्त मंत्री अरुण जेटली ने किया है.
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उनका कहना है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाला देश होने के नाते और इसके साथ दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ते हुए हमें अपनी राजनीति को पारदर्शी बनाना जरूरी है.
इस पारदर्शिता के लिए वित्त मंत्री अरुण जेटली चंदे की राशि को लेकर ये कहा है कि राजनीतिक पार्टी एक व्यक्ति से अधिकतम दो हजार रुपये नकद चंदा ले सकती है और पार्टियां चैक या डिजिटल माध्यम से चंदा प्राप्ति करने की पात्र होंगी. उन्होंने ये भी जोड़ा कि प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को निर्धारित समय सीमा के भीतर आयकर रिटर्न भरना होगा. इन घोषणाओं की विस्तृत रूपरेखा अभी सामने आना बाकी है, लेकिन उन्होंने ये बताया है कि राजनीतिक पार्टयिों की वित्त पोषण-प्रणाली में सुधार लाना जरूरी है. इसके लिए दलों को चंदा देने के लिए जल्दा ही अधिकृत बैंकों से चुनावी बांड जारी किए जाएंगे. इसे राजनीतिक सुधार की दिशा में कितना महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए.
चुनाव की प्रक्रिया राजनीतिक सुधार के केंद्र में होती है और चुनाव की प्रक्रिया को पारदर्शी लोकतंत्र के लिए जरूरी मानकर कई तरह के सुधार के कार्यक्रम लागू किए गए हैं. लेकिन ये महसूस किया गया है कि सुधार के जो भी कार्यक्रम लागू किए गए, उस तमाम सुधारों की काट राजनीतिक दलों ने निकाल ली. मसलन, राजनीतिक पार्टयिों को बीस हजार रुपये का दान देने वालों के नाम राजनीतिक पार्टयिों को चुनाव आयोग के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रावधान किया गया. तब पाया गया कि इसके बाद राजनीतिक दलों को जो राशि चंदे में मिली, उसमें 80 प्रतिशत राशि उन्नीस हजार नौ सौ निन्यानबे रुपये के रूप में मिली. 2015-16 के दौरान कुल 102.02 करोड़ रुपये दान राष्ट्रीय दलों को प्राप्त हुआ और उसमें केवल 112 दान दाताओं ने नकदी के माध्यम से 1.45 करोड़ दिए, जो पूरे दान का 1.42 प्रतिशत था.
यदि सार के तौर पर चुनाव सुधारों पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि चुनाव बेहद महंगे होते चले गए हैं. पार्टयिों के बजाय राजनीतिज्ञों द्वारा सत्ता के प्रभाव से जो हासिल होता है, वह राजनीतिक सुधारों की परिधि से बाहर रहता है. सत्ता से जुड़ने के बाद उम्मीदवारों की संपति में इजाफे के बारे में 1957 में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कार्यकर्ताओं की एक बैठक में दी. उन्होंने तब कहा कि टी.टी. कृष्णमाचारी के बेटे या उनका कोई रिश्तेदार कंपनी चलाता है तो उस कंपनी की मिल्कियत कृष्णामाचारी के मंत्री बनने के पहले कितनी थी और मंत्री बनने के बाद कितनी है, इसकी अहमियत इस रूप में ज्यादा है कि हिन्दुस्तान किस तरफ जा रहा है? डॉ. लोहिया ने बताया कि कृष्णामाचारी की एक कंपनी मुश्किल से 20-30 लाख की रही होगी और अब वह करोड़ों रुपये की हो गई हैं.
दरअसल, सरकार पारदर्शिता पर जोर दे रही है और राजनीतिक सुधारों को भी उसमें जोड़ रही है. नोटबंदी के फैसलों के बाद चुनाव आयोग द्वारा पंजीकृत कई दलों के खिलाफ कार्रवाई की गई. नरेन्द्र मोदी सरकार की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर गौर करना जरूरी है. यूपीए-दो के अंतिम दिनों तक राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ और पारदर्शिता को लेकर माहौल बना था. सरकार तकनीक को पादर्शिता के कार्यक्रमों के केंद्र में रख रही है, लेकिन तकनीक पारदर्शिता का पर्याय नहीं हो सकता है. पारदर्शिता का संबंध राजनीतिक सरोकारों से होता है. नकदी और चेक एवं राशि की मात्रा में कम या ज्यादा करने का फैसला बेहद तकनीकी है. पार्टयिों की यदि प्रवृत्ति केवल तकनीकी तौर पर अपने बचाव का रास्ता निकाल लेने की हो तो सुधार के किसी भी फैसले का नतीजा नहीं निकल सकता है.
राजनीतिक सुधार आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रमों से जुड़ा है. मोदी की सरकार इस तरह के फैसलों से अपनी छवि को चमकाने के लिए बतौर सामग्री तो तैयार कर सकती है, लेकिन वह वास्तविक अथरे में राजनीतिक सुधार को सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं. राजनीति व्यक्ति केंद्रित हो रही हो और लोकतंत्र की संस्थाओं का इस्तेमाल सामाजिक परिवर्तन के बजाय वर्चस्व का जरिया बन रही हो तो तकनीकी तौर पर सुधार से संभावनाओं की जमीन तैयार नहीं की जा सकती है. दरअसल, चुनाव सुधार को लेकर देश में कुछ गैर सरकारी संस्थाएं माहौल बनाती हैं और सरकार उस माहौल को ही संबोधित कर रही है.
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