आम बजट : और दूरदर्शिता चाहिए थी
करीब तीन साल पहले इस सरकार ने जब सत्ता संभाली थी, तब अर्थव्यवस्था मंदी के रूबरू थी.
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और वह मंदी यहीं नहीं, बल्कि समूचे विश्व में छाई मंदी थी. व्यापार में वृद्धि की दरें वैश्विक स्तर पर मद्धिम थीं. इसलिए शुरुआत में इस सरकार ने मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करके विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि, ढांचागत क्षेत्र में सुधार तथा निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन पर तवज्जो दी. लेकिन तीन वर्ष के पश्चात अब पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि वैश्विक कारोबार में वृद्धि के हालात न होने से विश्व की किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए निर्यात के मोच्रे पर अनुकूल स्थिति तो नहीं ही है. और भारत भी कोई अपवाद नहीं है.
हकीकत तो यह है कि बीते तीन वर्षो के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में गतिविधियों में कोई खास रवानी नहीं आ सकी. इस करके जमीनी वास्तविकताएं यही हैं कि विश्व के देशों ही नहीं बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कुछ ‘विशेष’ करना होगा-केवल ढांचागत निवेश या इसी की तरह के उपायों से परे जाकर सोचना होगा. लेकिन 2017-18 के केंद्रीय बजट को देखें तो बरबस इसमें नीतिगत दोहराव दिखलाई पड़ता है. बेशक, रेलवे के विकास के लिए 1.31 लाख करोड़ रुपये, परिवहन क्षेत्र के लिए 2.41 लाख करोड़ रुपये या समूचे ढांचागत क्षेत्र के लिए 3.96 लाख करोड़ रुपये के आवंटन अपेक्षित कहा जाएगा, लेकिन ढांचागत परियोजनाओं में जो अड़चनें तीन साल पहले थीं, जस की तस हैं. बजट में इनसे से जुड़े मुद्दों के समाधान का प्रयास तक नहीं किया गया है. कह सकते हैं कि दो-ढाई वर्षो से ढांचागत परियोजनाएं ठप पड़ी हैं,और इनके लिए मात्र आवंटन बढ़ाने भर से स्थिति में सुधार नहीं होगा.
तो इस समस्या के समाधान के लिए क्या किया जा सकता है? वित्त मंत्री ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया है. दूरदृष्टि के इस अभाव के चलते बजट प्रस्तावों में इन आवंटनों पर विस्तार से दृष्टिपात करना होगा ताकि कितने आवंटनों का उपयोग होने जा रहा है, और कहां-कहां पर होना है. बजट में एक सकारात्मक घोषणा किफायती आवासीय क्षेत्र को ढांचागत क्षेत्र का दरजा दिया जाना है. निम्न ब्याज दरों के माहौल में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना जैसी ग्रामीण योजनाओं के माध्यम से निर्माण गतिविधियों को बेतहाशा बढ़ाने की खासी संभावनाएं हैं. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना पहले ही अच्छे से क्रियान्वित की जा रही है.
लेकिन देखना होगा कि ये दोनों योजनाएं आवंटन बढ़ाए जाने से ग्रामीण भारत में आर्थिक गतिविधियों में खासी बढ़ोतरी का सबब बन सकती हैं. जैसा कि कहा जा चुका है कि नीति-निर्माता तक मान रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर निर्यात के हालात कमजोर होने के चलते निर्यात क्षेत्र आर्थिक सुधार का माध्यम नहीं बन सकेगा. यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि ‘निर्यात’ शब्द का उल्लेख बजट भाषण में केवल चार बार हुआ है. वह भी चलताऊ अंदाज में. ‘फॉरन इंवेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड’ को समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव किया गया है ताकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मौजूद विनिमयनों को सरल बनाया जा सके, लेकिन लगता है कि इसके बावजूद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या निर्यात में वृद्धि को लेकर को भी दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता.
अप्रत्यक्ष कर के मोच्रे पर जटिलताएं बरकरार हैं. चूंकि अधिकांश अप्रत्यक्ष कर अब जीएसटी के तहत वसूले जाने हैं, और जिसकी दर अभी तक नियत नहीं हैं, इसलिए आगामी वित्तीय वर्ष में अप्रत्यक्ष करों की कितनी वसूली होगी? जहां तक विनिर्माण क्षेत्र की बात है, तो मेक इन इंडिया जैसे प्रयासों के बावजूद यह क्षेत्र सुधरना नहीं दिखता. छोटी कंपनियों के लिए आयकर में छूट देकर एमएसएमई क्षेत्र को प्रोत्साहन देने का प्रयास दिखता है. पचास करोड़ तक का कारोबार करने वाली कंपनियों के लिए यह दर 30 प्रतिशत से कम करके 25 फीसद का प्रस्ताव किया गया है. यह ऊंट के मुंह में जीरा है. इससे कठिन स्थितियों में दूरदृष्टि की कमी का पता चलता है.
बजट से पूर्व तमाम विशेषज्ञ और टिप्पणीकारों को उम्मीद थी कि ग्रामीण और कृषि क्षेत्र में खासा आवंटन किया जाएगा क्योंकि उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे प्रमुख राज्यों में चुनाव की बेला है. इसके अलावा, विमुद्रीकरण के कारण लोगों खासकर ग्रामीणों को जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ा है, उस पीड़ा को कम करने के लिए इस प्रकार के आवंटन की खासी उम्मीद थी. यही कारण है कि बजट में पूर्व में किए गए आवंटनों, अभी के आवंटनों और भविष्य में होने वाले आवंटनों का उल्लेख मिलता है. वित्त मंत्री का दावा है कि इस मद पर किया गया यह अब तक का सर्वाधिक आवंटन है. लेकिन 2016-17 में सरकार 31 दिसम्बर, 2016 तक 54,152 करोड़ रुपये जारी कर चुकी थी. इसमें 2015-16 की 12,230 करोड़ रुपये की लंबित देनदारी भी शामिल थी. इसलिए शायद ‘अब तक की सर्वाधिक’ राशि होने का दावा जायका बनाने का प्रयास भर था.
अगर पल भर को इस बात की अनदेखी कर दें तो यह विडंबना तो पीछा ही नहीं छोड़ती कि सत्ता में आने के अपने शुरुआती दिनों में यही सरकार थी जिसने मनरेगा का खासा मखौल उड़ाते हुए इसे ‘नाकामयाबियों का स्मारक’ करार दिया था. ब्रॉडबैंड कवरेज बढ़ाने की गरज से भारतनेट, कराधार बढ़ाने, विमुद्रीकरण के बाद वित्तीव आंकड़ों पर अच्छे से तवज्जो देने के लिए दस हजार करोड़ रुपये के आवंटन जैसे प्रस्तावों पर विमुद्रीकरण की झलक दिखलाई पड़ती है. लेकिन आर्थिक समीक्षा की भांति ही बजट में भी इस बात को लेकर चुप्पी साध ली गई है कि विमुद्रीकरण के कदम से कितना काल धन हासिल किया जा सका है. इससे विपरीत आने वाले समय में अर्थव्यवस्था को नकदी रहित बनाने को लेकर बजट में तवज्जो देखने को मिलती है.
कठिन समय ज्यादातर समय केंस के सिद्धांत का ही अवलंबन लेती सरकार दिखती है. यह कि आमजन के हाथों में सीधे आय पहुंचा कर उसकी क्रय शक्ति को बढ़ाया जाए. या फिर सरकार सार्वजनिक निवेश में इजाफा करके अर्थव्यवस्था में जान फूंके. सरकार के पास अवसर था कि वे नये-नये तरीके अपनाकर अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के प्रयास करती. लेकिन वह भारत और विश्व भर में आर्थिक मंदी के सबक तीन साल के अपने कार्यकाल के बावजूद भी नहीं समझ सकी है.
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