वसंत पंचमी : उल्लास और वाग्देवी की आराधना

Last Updated 01 Feb 2017 03:42:32 AM IST

वसंतोत्सव भारत की सर्वाधिक प्राचीन और सशक्त परम्परा है. प्रेम, उमंग, उत्साह, बुद्धि और ज्ञान के समन्वय के इस रंग-बिरंगे पर्व का अभिनंदन प्रकृति अपने समस्त श्रृंगार के साथ करती है.


उल्लास और वाग्देवी की आराधना

ऋतुराज वसंत के स्वागत में प्रकृति का समूचा सौंदर्य निखर उठता है, समूची प्रकृति जीवंत हो जाती है. इस पर्व को सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री मां सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाए जाने के विस्तृत उल्लेख हमारे पुरा साहित्य में मिलते हैं. कहा जाता है कि सृष्टि की रचना के उपरांत जीव-जगत को स्वर देने के लिए प्रजा पिता ब्रह्मा जी के आह्वान पर इसी शुभ दिन वीणा, पुस्तक के साथ वरमुद्राधारी मां सरस्वती प्रकट हुई और अपने वीणा के तारों को झंकृतकर संपूर्ण सृष्टि में वाणी की शक्ति दी. इसीलिए इस पर्व को वाग्देवी जयंती के रूप में भी मनाया जाता है.

वैदिक ऋषि कहते हैं कि सरस्वती की साधना से कंठ से सोलह धारा वाले विशुद्ध शाम्भवी चक्र का उदय होता है, जिसका ध्यान करने से वाणी सिद्ध होती है. इसी कारण  भारतीय मनीषा ने कला व संगीत की देवी सरस्वती को ज्ञान साधना से जोड़कर अमूर्त व अवर्णनीय कर दिया है. प्राचीनकाल से आज तक वसंत का यही तत्वदर्शन भारत की देवभूमि को अपनी भावधारा से आबाध रूप से सिंचित करता आ रहा है.

सरस्वती एक ओर जहां विलुप्त नदी के रूप में जन संस्कृति का प्रतीक है तो दूसरी ओर हमारी देवभूमि की सांस्कृतिक चेतना के विकास का भी. ज्ञान-ध्यान, संयम व विवेक के साथ सरस्वती पूजन का यह पर्व कला संस्कृति के रूप में सदियों से जनमानस की आध्यात्मिक जिज्ञासा की प्यास तो बुझाता ही आ रहा है; हषर्-उल्लास के साथ मन की कोमल भावनाओं को भी तरंगित करता है.

ऋग्वेद में कई स्थलों पर सरस्वती को पवित्रता, शुद्धता, समृद्धता और शक्ति की देवी माना गया है और इंद्र और मरुत देवता से भी संबंधित किया गया है. वीणा, पुस्तक और कमल पुष्प और हंस से सुशोभित देवी सरस्वती ‘श्रुति महती धीमताम्’ स्वरूप को चरितार्थ करती हैं. हमारा जीवन सद्ज्ञान और विवेक से संयुक्त होकर शुभ भावनाओं की लय से सत्त संचरित होता रहे, इन्हीं दिव्य भावों के साथ की गई मां सरस्वती की भावभरी उपासना हमारे अंतस में सात्विक भाव भर देती है और हमारी आस्था पवित्र एवं प्रखर स्वरूप को प्राप्त करती है.

वातावरण की यह सूक्ष्म चेतना प्रकृति के साथ मानव के अंतस में घुलकर वासंती उल्लास बिखेर कर सत्त प्रवाहमान होती है, यही इस पर्व का मूल दर्शन है. ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती का पूजन कर इस परम्परा का शुभारम्भ किया था. सरस्वती पूजा भारतीय साहित्य साधना के क्रमिक विकास का प्राण तत्व है, जो आदि कवि वाल्मीकि की काव्यधारा का मूल स्वर बना और महाभारत में वेद व्यासजी की सर्जना का भी. वैष्णव धर्मावलंबी वसंत पंचमी को ‘श्रीपंचमी’ के रूप में मनाते हैं. मान्यता है कि इसी  दिन राधा-कृष्ण का मिलन हुआ था.

आज भी इस दिन वृंदावन के श्रीराधा श्याम सुंदर मंदिर में राधा-कृष्ण महोत्सव का भव्य आयोजन होता है. कुछ अन्य पौराणिक मान्यताएं वसंत पंचमी पर रति-काम पूजन की बात भी कहती हैं. भविष्य पुराण में वसंत का चैत्रोत्सव के रूप में अत्यन्त सुंदर और सजीव वर्णन मिलता है. इस विवरण के अनुसार वसंत ऋतु में शुक्ल त्रयोदशी के दिन वाग्देवी के पूजन के बाद काम और सौंदर्य की देवी रति की मूर्तियों को सिंदूर से सजाकर सामूहिक रूप से पूजन कर मदन महोत्सव मनाया जाता था. गरुड़ पुराण के अनुसार वसन्तोत्सव अगहन त्रयोदशी से प्रारम्भ होकर कार्तिक त्रयोदशी को समाप्त होता था.

खास बात यह है कि मां सरस्वती की उपासना व वसंत उत्सव वैदिक धर्मावलम्बियों तक ही सीमित नहीं है. बौद्ध व जैन मतावलम्बी भी देवी सरस्वती की उपासना व इस ऋतु पर्व को हषरेल्लास से मनाते हैं. हमारे यहां प्रेम को जीने व पुष्पित व पल्लवित करने की पूरी एक ऋतु है; जिसका शुभारम्भ वसंत पंचमी से होता है और होलिकोत्सव पर उल्लास की चरम परिणति के साथ वसंतोत्सव का आनन्द परिपूर्ण होता है. हमारी संस्कृति में इस पर्व पर मां सरस्वती की आराधना की विधान है ताकि हमारे मनों में उमड़ती भावनाएं अनियंत्रित-उच्श्रृंखल न हों, जबकि वेलेंटाइन-डे के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति में प्रेम के प्रदर्शन के लिए महज एक दिन.

पूनम नेगी
लेखिका


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