सर्जिकल स्ट्राइक पर दो टूक
भारतीय सेना द्वारा नियंत्रण रेखा के पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक करने के करीब ढाई साल बाद उत्तरी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह ने इस बात पर अपनी मुहर लगा दी कि भारतीय सेना ने सितम्बर, 2016 को पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक की थी।
सर्जिकल स्ट्राइक पर दो टूक |
उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्तरी कमान के प्रमुख के इस स्पष्टीकरण के बाद सर्जिकल स्ट्राइक या एयर स्ट्राइक पर होने वाली ओछी राजनीति बंद होनी चाहिए। कुछ दिन पहले सैन्य अभियान के महानिदेशक (डीजीएमओ) ने भी एक आरटीआई के जवाब में कहा था कि पहली सर्जिकल स्ट्राइक सितम्बर, 2016 को ही हुई थी।
दरअसल, सितम्बर, 2016 के बाद से अब तक सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर जितनी ओछी राजनीति हुई है, उससे सेना की विश्वसनीयता को धक्का पहुंचा है। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल सेना के इस कामयाब अभियान का सबूत मांग कर उसकी विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। हालांकि सत्तारूढ़ भाजपा भी इसके लिए कम दोषी नहीं है। उसने भी सेना के इस सफल अभियान को अपने पक्ष में प्रचारित करने का एक अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हालांकि सेना के किसी बड़े अभियान का श्रेय अन्तत: राजनीतिक नेतृत्व को ही दिया जाता है।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत को जो सफलता मिली उसका श्रेय तबकी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ही दिया गया और आज भी दिया जाता है। यही नहीं, उनके शासनकाल में पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण हुआ था। इसका श्रेय भी इंदिरा गांधी को ही दिया गया। लेकिन तब विपक्ष की ओर से इस तरह की छिछली राजनीति नहीं हुई थी। संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में निर्वाचित सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होती है, और संसद संप्रभु होती है।
जाहिर है कि शासन के किसी भी अंग का निर्णय सरकार का निर्णय माना जाता है। इसलिए भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर बालाकोट एयर स्ट्राइक, इनका कुछ न कुछ श्रेय तो मोदी सरकार को मिलना ही चाहिए। सवाल यह नहीं है कि भारतीय सेना ने सितम्बर, 2016 में पहली बार नियंत्रण रेखा के पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक की बल्कि असल मुद्दा यह है कि भारत ने दुश्मनों का मुंहतोड़ जवाब दिया। भारतीय सेना की यह बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इससे समूचा देश गौरवान्वित हुआ। राजनीति के लिए असंख्य मुद्दे हैं। विपक्ष को परिपक्वता दिखाते हुए सेना पर राजनीति करने से बचना चाहिए।
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