मन के कई चेहरे
ये अलग-अलग नहीं हैं. ये मन के ही बहुत चेहरे हैं. जैसे कोई हमसे पूछे कि बाप अलग है, बेटा अलग है, पति अलग है?
आचार्य रजनीश ओशो |
तो हम कहें कि नहीं, वह आदमी तो एक ही है. लेकिन किसी के सामने वह बाप है, और किसी के सामने वह बेटा है, और किसी के सामने वह पति है; और किसी के सामने मित्र है और किसी के सामने शत्रु है; और किसी के सामने सुंदर है और किसी के सामने असुंदर है; और किसी के सामने मालिक है और किसी के सामने नौकर है. वह आदमी एक है.
और अगर हम उस घर में न गए हों, और हमें कभी कोई आकर खबर दे कि आज मालिक मिल गया था, और कभी कोई आकर खबर दे कि आज नौकर मिल गया था, और कभी कोई आकर कहे कि आज पिता से मुलाकात हुई थी, और कभी कोई आकर कहे कि आज पति घर में बैठा हुआ था, तो हम शायद सोचें कि बहुत लोग इस घर में रहते हैं-कोई मालिक, कोई पिता, कोई पति. हमारा मन बहुत तरह से व्यवहार करता है. हमारा मन जब अकड़ जाता है और कहता है: मैं ही सब कुछ हूं और कोई कुछ नहीं, तब वह अहंकार की तरह प्रतीत होता है.
वह मन का एक ढंग है; वह मन के व्यवहार का एक रूप है. तब वह अहंकार, जब वह कहता है-मैं ही सब कुछ! जब मन घोषणा करता है कि मेरे सामने और कोई कुछ भी नहीं, तब मन अहंकार है. और जब मन विचार करता है, सोचता है, तब वह बुद्धि है. और जब मन न सोचता, न विचार करता, सिर्फ तरंगों में बहा चला जाता है, अन-डायरेक्टेड... जब मन डायरेक्शन लेकर सोचता है-एक वैज्ञानिक बैठा है प्रयोगशाला में और सोच रहा है कि अणु का विस्फोट कैसे हो-डायरेक्टेड थिंकिंग, तब मन बुद्धि है.
और जब मन निरु द्देश्य, निर्लक्ष्य, सिर्फ बहा जाता है-कभी सपना देखता है, कभी धन देखता है, कभी राष्ट्रपति हो जाता है-तब वह चित्त है; तब वह सिर्फ तरंगें मात्र है. और तरंगें असंगत, असंबद्ध, तब वह चित्त है. और जब वह सुनिश्चित एक मार्ग पर बहता है, तब वह बुद्धि है.
ये मन के ढंग हैं बहुत, लेकिन मन ही है. और वे पूछते हैं कि ये मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा अलग हैं या एक हैं? सागर में तूफान आ जाए, तो तूफान और सागर एक होते हैं या अलग? विक्षुब्ध जब हो जाता है सागर तो हम कहते हैं, तूफान है. आत्मा जब विक्षुब्ध हो जाती है तो हम कहते हैं, मन है; और मन जब शांत हो जाता है तो हम कहते हैं, आत्मा है.
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