मोह का त्याग
साधक के मार्ग का मोह पांचवां अवरोधक मनोविकार है. मोह जड़ता का प्रतीक है, जो विवेक को जागृत नहीं होने देता.
सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो) |
कोई भी साधक जब तक किसी विकार से ग्रसित रहेगा, वह साधना में नहीं उतर सकता. साधना निर्विकार की परिणति है. परमात्मा ने मनुष्य को निर्विकार, सरल और सौम्य जीवन जीने के लिए अवतरित किया. लेकिन हमने स्वयं अपने चारों ओर मोह और ममता का मायाजाल निर्मिंत कर स्वयं को फंसा लिया. जितना दुख चिंता, भय हमने अपने जीवन में आमंत्रण देकर बुलाया है, सब हमार अपनी कल्पना का फल है. ईश्वर ने हमारे लिए कोई जाल नहीं बनाया, हमने स्वयं अपने हाथों से उन जालों को बनाया और स्वयं उसमें फंसते गए.
मोह का मायाजाल व्यक्ति की अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है. मोह के कारण जिस वस्तु से उसे लगाव हो जाता है, बाद में वही वस्तु कांटे की तरह चुभने लगती हैं. वस्तुओं का संग्रह कर हम तृप्त होना चाहते हैं, संतुष्ट होना चाहते हैं और जब संग्रहकर्ता को उससे संतोष नहीं होता और मोह के कारण और अधिक संग्रह की लिप्सा बढ़ती जाती है तब पता चलता है कि इस संग्रह की प्रवृत्ति का मायाजाल कितना बढ़ता जा रहा है.
मोह के कारण जिन वस्तुओं का अधिक-से-अधिक संग्रह हम करना चाहते हैं, अगर उन वस्तुओं से मन में संतोष और आनंद की अनुभूति न हो तो बड़ी निराशा होती है. मोह अभाव से उत्पन्न होता है और अभाव का अर्थ है कि व्यक्ति भीतर से खाली है. भीतर जो खाली है, व्यक्ति के भीतर के आकाश में खोखलापन है तो वह भीतर के अभाव को भरने के लिए बाहर की वस्तुओं के संग्रह के मोह में पागल हो जाता है.
भीतर का अभाव ही बाहर से भरने की उत्सुकता पैदा कर देता है. इसीलिए लोग संपत्ति अर्जुन के मोह में फंसे रहते हैं और संग्रह हो जाने पर उसका कोई उपयोग नहीं करते और उस संपत्ति को सहेजकर बैंक के लॉकर में रख देते हैं. दूसरे ओर, साधनापथ पर चलनेवाले साधकों ने यह मान लिया है कि बाहर को वस्तु का मोह निर्थक है. इसीलिए अगर मोह भी करना हो तो अपनी आत्मा से करना चाहिए, वस्तुओं से नहीं. साधक के लिए मोह पतन का पांचवां मार्ग है.
मोह के मायाजाल में फंसा मनुष्य साधना के क्षेत्र में नहीं प्रवेश कर सकता. जब तक हम मनोयोगपूर्वक षड्विकारों से मुक्त होकर परमात्मा के अस्तिव, को अंतर्मन में धारण करने का संकल्प नहीं लेंगे तब तक सत्संग का फल हमें कैसे प्राप्त होगा?
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