क्रोध
खुद के बारे में बहुत अधिक सोचना संभवत: सबसे बड़ी बीमारी है. तुम प्रसन्न नहीं हो सकते, तुम जीने का मजा नहीं ले सकते.
आचार्य रजनीश ओशो |
तुम कैसे ले सकते हो मजा? भीतर इतनी समस्याएं हैं! समस्याएं ही समस्याएं हैं और दूसरा कुछ नहीं. और समाधान कोई नजर नहीं आता. क्या करें? तुम विक्षिप्त हो जाते हो. भीतर हर कोई विक्षिप्त है. तुम भी यदा-कदा पागल होते हो- इसीलिए क्रोध पैदा होता है: क्रोध आकस्मिक पागलपन है.
यदि तुम कभी इसे बाहर निकलने का मौका नहीं देते हो, तुम इतना अधिक इकट्ठा कर लोगे कि यह यह फूट पड़ेगा, तुम विक्षिप्त हो जाओगे. लेकिन यदि तुम लगातार इसकी चिंता करते रहे तो तुम विक्षिप्त हो ही चुके हो.
यह मेरा निरीक्षण रहा है कि जो लोग ध्यान, प्रार्थना, सत्य को खोजने में लगे हैं, वे अन्य लोगों की अपेक्षा पगलपन के लिए अधिक उपलब्ध हैं. और इसका कारण है, ऐसे लोग खुद से बहुत अधिक मतलब रखते हैं, अधिक अहंकार-केंद्रित, लगातर यह और वह सोचते रहते, वे कभी ठीक नहीं रहते, नहीं रह सकते, क्योंकि शरीर का दायरा बड़ा है और तमाम प्रक्रियाएं चलती रहती हैं.
यदि कुछ न हो तो भी वे चिंतित होते हैं: कुछ क्यों नहीं हो रहा है? और तुरंत वे कुछ न कुछ पैदा कर लेते हैं क्योंकि यह उनकी स्थाई आदत बन जाती है: अन्यथा वे खोया हुआ महसूस करते हैं. क्या करें? कुछ भी नहीं हो रहा है. यह कैसे संभव है कि मुझे कुछ नहीं हो रहा है? वे अपने अहंकार को तभी महसूस कर सकते हैं, जब कुछ हो रहा हो-चाहे वह अवसाद, दुख, क्रोध या बीमारी ही क्यों न हो. लेकिन यदि कुछ हो रहा हो तो ठीक है, वे खुद को महसूस कर सकते हैं.
बहादुर आदमी एक बार मरता है और कायर लाखों बार मरते हैं; क्योंकि वे चिकोटी काटते हैं और महसूस करते हैं कि वे मृत हैं या नहीं. तुम्हारी बीमारी तुम्हारे अहंकार को कायम रखने में तुम्हारी मदद करती है. तुम महसूस करते हो कि कुछ हो रहा है-वास्तव में यह प्रसाद नहीं है, आनंद नहीं है, अपितु अवसाद है और कोई भी इतना दुखी नहीं जितना ‘मैं, और ‘कोई भी इतना अवरु द्ध नहीं जितना ‘मैं’ और ‘किसी आदमी को इतना ज्यादा सिर-दर्द नहीं जितना मुझे.’ तुम खुद को बड़ा महसूस करते हो, दूसरे छोटे हैं.
यदि तुम खुद के बारे में बहुत अधिक सोचते हो, याद रखो, मंजिल पर पहुंच नहीं सकते. यह ज्यादा मतलब रखना तुम्हें अवरु द्ध कर देगा. रास्ता तुम्हारी आंखों के सामने साफ है. तुम्हें अपनी आंखें खोलनी हैं.
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