प्रकृति की खोज
सत्य की खोज में आमतौर पर विज्ञान और अध्यात्म को एक-दूसरे से भिन्न माना जाता है.
श्री श्री रविशंकर |
दोनो का ही आधार स्तंभ है जिज्ञासा. आधुनिक विज्ञान वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का तरीका अपनाता है, और अध्यात्म आत्मपरक विश्लेषण करता है. ‘ये क्या है? जगत में ये क्या है?’ इन प्रश्नों के साथ विज्ञान बाहरी जगत को जानने में रत रहता है. जबकि अध्यात्म की शुरुआत होती ‘मैं कौन हूं?’ प्रश्न से. प्राचीन समय के जगत में इन दोनों प्रकार के ज्ञान में कोई संघर्ष नहीं था.
मनुष्य का स्वयं के बारे में ज्ञान और ब्रह्मांड के बारे में ज्ञान, एक-दूसरे के पूरक थे, और ये ज्ञान मनुष्य का सृष्टि के साथ एक सुदृढ़ और स्वस्थ संबंध बनाने का आधार था. इन दो प्रकार के ज्ञान को अलग मानने की वजह से आज विश्व के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं.
प्राचीन ज्ञान के मुताबिक मनुष्य के अनुभव में 5 परतें आती हैं, जो हैं पर्यावरण, शरीर, मन, अंर्तज्ञान और आत्मा. पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्त्वपूर्ण परत है.
अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकारात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आए व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं. मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नजदीकी रिश्ता है. प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है-पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चंद्र... जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं. हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा,
जिससे कि प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है. आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं. उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं. केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस-पास के लोगों में नकारात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं. ये नकारात्मक भावनाएं फैलते-फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं. अधिकतर युद्ध और संघर्ष इन्हीं भावनाओं से ही शुरू होते हैं. परिणाम में पर्यावरण को नुकसान होता है.
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