निजी नहीं रहा निजता का सवाल

Last Updated 31 Jul 2021 08:39:43 AM IST

पेगासस कांड का विवाद भले नया हो, लेकिन जासूसी का इतिहास सदियों पुराना है। चाणक्य का दौर हमें याद दिलाता है कि कैसे जासूसी ने नई मान्यता को स्थापित किया कि युद्ध केवल रणक्षेत्र में नहीं जीते जाते। उन्हें दरबार, बाजार और यहां तक कि अंत:पुर के जरिए भी जीता जा सकता है।


निजी नहीं रहा निजता का सवाल

धनानंद की हार और चंद्रगुप्त की जीत इसकी मिसाल के तौर पर देखी जाती है। इंसान की परख के लिए चाणक्य नीति तो दुश्मनों और दोस्तों में भी भेद नहीं करती। चाणक्य ने दुश्मनों की ही तरह दोस्तों की भी जमकर जासूसी करवाई। लेकिन वो दौर कुछ और था।

राजशाही के तौर-तरीके लोकतंत्र में केवल व्यावहारिकता के आधार पर ही नहीं, नैतिक पैमाने पर भी कसे जाते हैं और इसका पटाक्षेप हमें उसी दिशा में ले जाता है, जिधर इन दिनों देश की संसद चल पड़ी है।

पिछले सात साल में संसद ने व्यवस्थित कामकाज का जो नया कल्चर विकसित किया था, वो पिछले दो हफ्तों से पूरी तरह दांव पर लगा हुआ है। विपक्ष किसानी, कोरोना, महंगाई जैसे अन्य जरूरी मुद्दों को पीछे रखकर पेगासस के मामले को पहले सुलझाने पर अड़ा हुआ है। वैधानिक तरीके से निगरानी करने की सरकार की दलील उसके गले नहीं उतर पा रही है। नतीजा ये है कि संसद ठप पड़ी है, रोज दोनों सदनों की कार्यवाही अगले दिन के लिए टल रही है और विपक्ष को उसके आचरण के लिए स्पीकर से चेतावनी की हद तक कड़ी फटकार मिल रही है।  

बात केवल खुलासे की विसनीयता की ही नहीं है। बुनियादी सवाल निजता के हनन का है। विपक्ष जानना चाहता है कि सरकार ने पेगासस का उपयोग किया या नहीं और सरकार कह रही है कि जासूसी के दावों में सरकारी निगरानी का कोई ठोस आधार नहीं है। बात सही है, लेकिन अजीब संयोग है कि जो नम्बर निगरानीशुदा लिस्ट में शामिल हैं, उनके उपयोगकर्ता कहीं-न-कहीं सरकार का सिरदर्द बढ़ाने वालों में भी शामिल हैं। लेकिन खुलासे का एक दूसरा पक्ष भी है और ये भी अनुमान पर ही आधारित है। सवाल उठ रहे हैं कि संसद का सत्र शुरू होने से ठीक पहले की शाम ही जासूसी का ये बम फोड़ने की कौन-सी ‘इमरजेंसी’ आन पड़ी थी? जिस काम को डूबते सूरज से पहले निपटाया गया, उसके लिए अगले दिन सूरज उगने का इंतजार क्यों नहीं किया गया? क्या यहां भी जयद्रथ वध के लिए अर्जुन प्रतिज्ञा जैसा कोई मामला है, जिसमें सत्य को असत्य के पीछे छिपाने की कोई माया रची गई है?

टाइमिंग का सवाल
सरकारी एजेंसियां इस मुद्दे की टाइमिंग को डाटा कारोबार में वैिक कंपनियों के खेल से जोड़कर देख रही हैं। ऐसा अनुमान है कि भारत में नये आईटी एक्ट की तैयारी इसकी जड़ हो सकती है। मोदी 2.0 की शुरु आत में ओसाका में हुई जी-20 की शिखर बैठक से ही भारत डाटा की सुरक्षा को लेकर सख्त रुख दिखाता आया है। कई विकसित देश एफडीएफ यानी फ्री डाटा फ्लो के हिमायती हैं, जबकि भारत का जोर डाटा लोकलाइजेशन पर है। सरल भाषा में इसे यूं समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार चाहती है कि भारत का डाटा भारत में ही संरक्षित किया जाए, जबकि विकसित देश इसकी वैिक साझेदारी के पक्ष में हैं। इसमें नुकसान किसका है? उन कंपनियों का जिनके सर्वर तो उनके अपने देश में लगे हैं, लेकिन कमाई वो भारत से कर रही हैं। अब उन पर भारत का डाटा भारत में ही संरक्षित करने की तलवार लटक गई है। ये इस पचड़े का सरकारी पक्ष है, जो सच भी हो सकता है। अब दूसरा पक्ष ये है कि कंपनियों की ही तरह कानून के जरिए डाटा तक आसान पहुंच सरकार के लिए भी तो उसके दुरु पयोग का दरवाजा खोल सकती है यानी इसे हथियार बनाकर सरकार जिसकी चाहे उसकी जासूसी कर सकती है, या करवा सकती है।

भारत पर हमलावर रहता पश्चिमी समाज
कुछ ऐसी ही धारणाओं से पोषित पश्चिमी समाज नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भारत पर हमलावर रहता है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर ट्रंप प्रशासन की प्रतिक्रिया ज्यादा पुरानी बात नहीं है। पिछले हफ्ते जारी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट 2021 इन्वेस्टमेंट क्लाइमेट स्टेटमेंट्स में भी जम्मू-कश्मीर और सीएए-एनआरसी को लेकर भारत में निवेश को लेकर नकारात्मक टिप्पणी को जगह दी गई है।

भारत दौरे पर आए अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने अपने बयान से उस पुरानी आग में नया घी डालने वाला काम किया है। आधिकारिक बैठकों से इतर सिविल सोसायटी के लोगों से मुलाकात में ब्लिंकन ने कहा कि लोकतंत्र को ज्यादा खुला, अधिक लचीला और प्रभावी रूप से समावेशी बनाने के लिए जीवंत नागरिक संस्थाएं जरूरी हैं। जिस मुलाकात में ब्लिंकन ने ये बात कही है, वहां किसान आंदोलन, नागरिकता संशोधन कानून, लव जिहाद, मीडिया की आजादी जैसे विषयों पर चर्चा तय थी। तो ऐसे माहौल के बीच से आए इस बयान का अर्थ यही लगाया जा सकता है कि ब्लिंकन ये कहना चाह रहे हैं कि लोगों को सरकार के खिलाफ राय देने का भी हक होता है और उनके साथ भी सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए। बताया जा रहा है कि इस मुलाकात के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ बैठक में भी ब्लिंकन ने ऐसी ही चिंताएं साझा की थीं, जिस पर उन्हें कथित तौर पर अमेरिका के रंगभेद, ब्लैक लाइव्स मैटर और कैपिटल हिल पर हुए हमलों की याद दिला कर चुप करा दिया गया।

राजनीतिक बयानबाजी और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की विवशताएं समझी जा सकती हैं, तो राज्य व्यवस्था और निगरानी की व्यावहारिकता को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल फिर वही उठता है कि इसका प्रमाणिक तरीका क्या हो? राष्ट्रीय महत्त्व के विषय पर ‘जासूसी’ के लिए सरकारों के पास वैध विकल्प हमेशा से मौजूद रहे हैं, लेकिन उससे इतर तकनीक के जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चुनौती हमेशा विवादित रही है। फिर पेगासस का मामला टैपिंग का नहीं हैकिंग का है जो इस मुद्दे का सबसे दोषपूर्ण ‘गुण’ है। सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ पत्रकारों की ओर से दायर याचिका में भी अनुच्छेद 21 को आधार बनाते हुए किसी भी व्यक्ति के मोबाइल फोन में घुसपैठ को उसकी सूचनात्मक निजता पर सीधा हमला बताया गया है।

यह समस्या केवल भारत की नहीं है। पूर्व में एनएसओ की सर्विलांस तकनीक से मेक्सिको में पत्रकारों, वकीलों और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों को भी निशाना बनाया जा चुका है। वाशिंगटन पोस्ट से जुड़े पत्रकार जमाल खशोगी की हत्या के मामले में भी पेगासस कटघरे में है। ताजा खुलासे में 50 हजार नम्बरों का डाटा लीक दुनिया के 45 देशों में हलचल की वजह बना है। लेकिन लीक नम्बरों की तादाद के मामले में हमने इससे कहीं बड़े मामले देखे-सुने। फेसबुक, डोमिनोज, मोबिक्विक, बिग बास्केट, कई डेटिंग साइट्स के मामले में तो करोड़ों यूजर्स का डाटा लीक हुआ था। साइबर हमलों के मामले में भारत दुनिया में तीसरे और एशिया पैसिफिक में दूसरे स्थान पर है। लेकिन खेल इतना भर नहीं है। साइबर सिक्योरिटी फर्म सोफोस के अनुसार हैक किए हुए डाटा को दोबारा हासिल करने के पीछे रैन्सम यानी फिरौती का भी बड़ा बाजार है। अमेरिका और यूरोप से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया तक इसकी जद में हैं। पिछले साल अकेले उत्तरी अमेरिका में ये बाजार 158 फीसद की दर से बढ़ा है। भारत में इसकी ग्रोथ 62 फीसद आंकी गई है।

तो क्या यह खुलासा समूची दुनिया के सर्विलांस स्टेट की ओर बढ़ने का संकेत दे रहा है? कुछ लोगों को ये सवाल जल्दीबाजी लग सकता है, लेकिन इस बात से तो कोई इनकार नहीं करेगा कि सर्विलांस की मौजूदा तकनीक के पलड़े पर साल 2010 में जूलियन असांजे और 2013 में सामने आई एडर्वड स्नोडेन की कारगुजारियां अब बीते दौर ही बात लगती हैं। इसीलिए अब इससे निपटने के लिए नये जमाने के कानूनी उपाय तलाशना भी जरूरी हो गया है। निजता का हनन अब दरअसल सार्वजनिक सवाल बन गया है। देखने वाली बात ये है कि इंटरनेट के जमाने में लगातार छोटी हो रही दुनिया इस सवाल का सामना करने के लिए अपनी साझेदारी का दायरा कितना बड़ा कर पाती है?

 

उपेन्द्र राय


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