लंबी है अफगानिस्तान में ’अमावस की रात‘

Last Updated 01 Aug 2021 12:11:44 AM IST

एशियाई देशों की विदेश नीति के भविष्य को लेकर पिछले कई दिनों से तरह-तरह के सरसरी अनुमान लगाए जा रहे थे, लेकिन बीते हफ्ते की दो अहम मुलाकातों ने इन तमाम अनुमान को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।


लंबी है अफगानिस्तान में ’अमावस की रात‘

एक मुलाकात तो भारत और अमेरिका के विदेश मंत्रियों के बीच हुई है, जिसमें काफी कुछ औपचारिक दिखा है। लेकिन दूसरी मुलाकात ने एक संभावित खतरे की आशंका को लेकर समूची दुनिया का ध्यान खींचा है और ज्यादा बड़ा आकार ले लिया है। ये मुलाकात हुई है चीन के विदेश मंत्री और तालिबान के नेता मुल्ला बरादर के बीच और ये ऐसे समय में हुई है जब तालिबान बड़ी तेजी से अफगानिस्तान में बढ़त बना रहे हैं। तालिबानी खेमा दावा कर रहा है कि वो तीन-चौथाई अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा चुका है। इस दावे का महत्त्वपूर्ण पहलू ये है कि अफगानिस्तान की सीमाओं की ज्यादातर चौकियों पर कब्जा जमाकर तालिबान ने दूसरे देशों से होने वाले कारोबार पर भी संभवत: अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है। ऐसे में तालिबानी नेताओं से चीनी विदेश मंत्री की मुलाकात से यही संदेश जा रहा है मानो चीन ने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के गठन से पहले ही उसे मान्यता दे दी हो।

दरअसल, हकीकत तो ये है कि तालिबान हमेशा से चीन की ‘कूटनीति’ का अहम हिस्सा रहा है। इसकी दो-तीन अहम वजह हैं। पहली तो ये कि चीन ने अफगानिस्तान में करीब 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया हुआ है। वो अपने बेल्ट रोड इनिशिएटिव को अब पीओके से बढ़ाकर अफगानिस्तान तक ले जाना चाहता है। इसमें दोनों का फायदा है। दूसरी वजह तालिबान के कंधे पर बंदूक रखकर भारत पर निशाना साधने की है। तालिबान के जैश और लश्कर जैसे आतंकी समूहों से दोस्ताना संबंध हैं और चीन चाहता है कि जरूरत पड़ने पर वो तालिबान की इस दोस्ती का भारत के खिलाफ रणनीतिक बढ़त के लिए इस्तेमाल कर सके। लेकिन एक और वजह है जो असल में फौरी तौर पर चीन की सबसे बड़ी जरूरत है। तालिबान के आने से चीन को अपने शिनिजयांग प्रांत में दिक्कतें बढ़ने का डर है, जहां उसने उइगर मुसलमानों को अघोषित कैद में रखा है। इस प्रांत में चीन और अफगानिस्तान के बीच आठ किलोमीटर लंबी सीमा है, जहां अलग पूर्वी तुर्किस्तान बनाने की मांग को लेकर आतंकी संगठन सक्रिय हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की हालिया रिपोर्ट में भी सैकड़ों बीजिंग विरोधी चरमपंथियों की अफगान-चीन सीमा पर मौजूदगी का जिक्र है। ये चरमपंथी संगठन चीन के खिलाफ सिर उठाने के लिए उइगर मुसलमानों को भी लगातार बढ़ावा देते रहते हैं। इसी डर को दूर करने के लिए चीन कोई औपचारिक रिश्ता नहीं होने के बावजूद साल 1996 में तालिबान की पहली पारी के समय से ही उसके संपर्क में है। समझा जा रहा है कि मुल्ला बरादर से मुलाकात में चीन का ये डर दूर हो गया है और उसे तालिबान से इस बात का भरोसा मिल गया है कि वो इस मामले में चीन का साथ देगा और सीमा पर सक्रिय आतंकी समूहों को भी साथ लाएगा।

इस मामले में पाकिस्तान से जो उम्मीद थी, उसने वैसा ही किया है। चीन की कठपुतली बन चुकी इमरान सरकार ने इस मुलाकात का स्वागत किया है। इसके लिए पाकिस्तान ने अमेरिका से मिले दाना-पानी के अहसान को भी ताक पर रख दिया है। पाकिस्तान ने एक तरफ अमेरिका तो अफगानिस्तान का कसूरवार ठहरा दिया है, वहीं दूसरी तरफ चीन को शांति की सबसे बड़ी उम्मीद बताया है। इमरान खान ने तो शर्मिदगी की हर हद पार करते हुए खून की होली खेल रहे तालिबान को आतंकी मानने से भी इनकार कर दिया है। इमरान की नजर में तालिबान आम पश्तून नागरिक हैं और उनमें से 30 हजार शरणार्थी के तौर पर पाकिस्तान में पनाह लिए हुए हैं। चीन को ‘दीवार’ बनाकर पाकिस्तान एक तीर से दो नहीं, बल्कि तीन लक्ष्य  अमेरिका, भारत और अफगान सरकार-पर एक साथ निशाना साध रहा है।

यहां वो पहली मुलाकात महत्त्वपूर्ण हो जाती है जिसका जिक्र मैंने इस लेख की शुरु आत में किया है। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर और उनके अमेरिकी समकक्ष एंटनी ब्लिंकन की इस मुलाकात ने उस कुहासे को साफ करने का काम किया है, जो इस मामले में अमेरिका के विरोधाभासी रवैये के कारण बन रहा था। एक तरफ अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी करवा रहा था, वहीं दूसरी तरफ उसे आतंकियों का अड्डा बनने से बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहा था। लेकिन कई सवाल अब भी बाकी हैं। जैसे कि दोनों पक्षों की बैठक से ये साझा सोच सामने आई है कि अफगानिस्तान संकट का सैन्य समाधान नहीं हो सकता और इसके लिए तालिबान को संघर्ष का रास्ता छोड़कर बातचीत की टेबल पर आना होगा, लेकिन ये सब होगा कैसे, इसका कोई एक्शन प्लान सामने नहीं आया है। अमेरिका ज्यादा-से-ज्यादा केवल तालिबान पर निगरानी की बात कर रहा है। बेशक, हाल के दिनों में भारत-अमेरिका के बीच भरोसा गहरा हुआ हो, लेकिन अमेरिका के बारे में ये भी मशहूर है कि वो बिना अपने फायदे के किसी देश से संबंध नहीं बनाता। इस वजह से भी यह सोच मजबूत होती है कि कहीं अफगानिस्तान में चीन के बढ़ते दखल के कारण तो अमेरिका भारत को आगे नहीं करना चाहता। वैसे भी अफगानिस्तान में अपनी सेना की मौजूदगी के समय से ही अमेरिका चाहता रहा है कि भारत भी वहां अपनी सेना भेजे, लेकिन भारत ऐसे किसी भी दुस्साहस से बचता रहा है।

भारत को ये समझदारी आगे भी दिखानी होगी क्योंकि मौजूदा सूरतेहाल में जरा सी रणनीतिक और राजनयिक चूक अफगानिस्तान को भारत और चीन का अखाड़ा बना सकती है। चीन की ही तरह भारत ने भी नये अफगानिस्तान के निर्माण में भारी-भरकम निवेश किया हुआ है। खतरा अकेले इस निवेश के खटाई में पड़ने का नहीं है, उससे बड़ी चिंता इस बात की है कि आगे चलकर कहीं तालिबान की सरपरस्ती में अफगानिस्तान भारत-विरोधी गतिविधियों का केंद्र न बन जाए। इसलिए इस मसले पर अमेरिका का साथ मिलने से जोश में आने के बजाय पहले की ही तरह होश वाली रणनीति पर आगे बढ़ते रहना समझदारी होगी।  

इस सबके बीच पाकिस्तान भले ही इस संकट को आसमान से गिरी सौगात मान रहा हो, लेकिन उसके हाथ ज्यादा कुछ लगता नहीं दिख रहा है। आर्थिक ताकत के कारण चीन के लिए यह अपना दायरा बढ़ाने का एक सुनहरा अवसर जरूर है। आने वाले दिनों में अगर तालिबान सत्ता में बैठते हैं, तो देश चलाने के लिए जरूरी आर्थिक संसाधन की पूर्ति के लिए उनके पास भी चीन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होगा। चीन अगर तालिबान के नेतृत्व में ही सही, लेकिन अफगानिस्तान को खड़ा रखने में सकारात्मक रोल निभाता है तो भी इसमें भारत को आपत्ति नहीं होगी। लेकिन चीन की फितरत को देखते हुए यह सूरज के पश्चिम से उगने वाली बात लगती है। फिलहाल तो अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए तालिबान और चीन-पाकिस्तान जिस तरह की गिरोहबाजी में जुटे हैं, उससे अफगानिस्तान में अमावस की रात लगातार लंबी होती जा रही है।

उपेन्द्र राय


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